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🌸 स्मृतियों का त्याग : जीवन की अनिवार्यता 🌸

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बीते पलों की स्मृतियाँ : यादें और जीवन का सत्य जीवन एक निरंतर यात्रा है, जिसमें हम सुख-दुख, हँसी-आँसू और अनेक अनुभवों को समेटते चलते हैं। इस यात्रा में कुछ स्मृतियाँ इतनी मधुर होती हैं कि उन्हें सोचकर मन पुलकित हो उठता है, वहीं कुछ अनुभव इतने पीड़ादायक होते हैं कि वे हृदय को चीर देते हैं। किंतु सत्य यही है कि पुरानी यादें, चाहे सुखद हों या दुखद, एक दिन सभी को भूलनी ही पड़ती हैं। मानव जीवन की यही विशेषता है कि वह परिवर्तनशील है। जैसे टूटी हुई चप्पल या फटे हुए कपड़े चाहे कितने ही प्रिय क्यों न हों, देर से हो या जल्दी, उन्हें त्यागना ही पड़ता है। कभी हँसते हुए, कभी रोते हुए, परंतु अंततः उनका बोझ छोड़ना पड़ता है। उसी प्रकार स्मृतियाँ भी होती हैं। वे चाहे कितनी ही सुंदर क्यों न रही हों, या कितनी ही दुःख देने वाली क्यों न रही हों, समय के प्रवाह में उनसे मुक्त होना आवश्यक है। यदि हम अतीत के सुख में ही डूबे रहें तो वर्तमान का मूल्य नहीं समझ पाते, और यदि दुःख को पकड़े रहें तो भविष्य की राह कठिन हो जाती है। स्मृतियाँ हमें केवल इतना सिखाती हैं कि जीवन क्षणभंगुर है। हर स्थिति, हर संबंध...

🌸 आकाश से उतरा मंदिर : बचपन की वाणी का सत्य 🌸

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आकाश से उतरा मंदिर : बचपन की वाणी और आज की सच्चाई मनुष्य का जीवन अनेक रहस्यों से भरा होता है। कभी-कभी बचपन में बोले गए शब्द या कल्पनाएँ समय के साथ भविष्य की वास्तविकता का रूप ले लेती हैं। ऐसा ही एक प्रसंग स्मृतियों के पन्नों से उभरता है, जब वर्ष 2003 में मात्र छह या सात वर्ष की बालिका ने अपने परिवार के सामने एक अद्भुत बात कही थी। उसने कहा था— "एक दिन ऐसा एक तीर्थस्थल बनेगा, वह मंदिर आसमान से गिरेगा। उस मंदिर में जात-पात, धर्म, ऊँच-नीच की कोई चर्चा नहीं होगी। यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी उस मंदिर में दर्शन के लिए आएँगे।" यह सुनकर उसकी माँ घबरा गईं और डाँटते हुए समझाने लगीं, क्योंकि उन्हें लगा कि यह सब एक बाल-कल्पना या दिमाग का भ्रम है। किन्तु नानीमा ने इसे हँसते हुए सुना, मानो उन्हें इसमें किसी गहरी सच्चाई की आहट दिखाई दी हो। समय बीता। वर्ष बदले, परिस्थितियाँ बदलीं, परंतु वह बचपन की कही हुई बात कहीं गहरे मन में सुप्त पड़ी रही। और आज, जब वर्ष 2025 का समय है, तथा संगीत जगत के महान कलाकार जुबिन गर्ग के निधन के अवसर पर करोड़ों लोग बिना जाति, बिना धर्म, बिना भेदभाव के एकत्रि...

"कैथरीन पेरेज़-शकदम : सत्य और साहस की अदम्य नारी" ✅

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कैथरीन पेरेज़-शकदम : साहस और सत्य की आवाज़ इतिहास गवाह है कि जब-जब समाज ने महिलाओं को हाशिए पर डालने की कोशिश की है, तब-तब कुछ नारी शक्तियाँ उठ खड़ी हुई हैं और अपने ज्ञान, साहस और कर्म से दुनिया को यह दिखाया है कि नारी की आवाज़ ही परिवर्तन की असली ध्वनि होती है। ऐसी ही एक प्रेरणादायी हस्ती हैं — कैथरीन पेरेज़-शकदम। संघर्ष और विविधता से सीख 22 मई 1977 को पेरिस, फ्रांस में जन्मी कैथरीन एक ऐसे माहौल में पली-बढ़ीं, जहाँ विविध भाषाएँ, संस्कृतियाँ और धर्म आपस में मिलते थे। यही विविधता उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी ताक़त बनी। फ्रेंच, अंग्रेज़ी, हिब्रू और अरबी जैसी भाषाओं पर उनकी पकड़ ने उन्हें वैश्विक स्तर पर अपनी बात रखने की शक्ति दी। वे मानो यह संदेश देती हैं कि भाषा की सीमाएँ केवल भौतिक होती हैं, विचारों की नहीं। सत्य के प्रति अडिग निष्ठा पत्रकारिता के क्षेत्र में कैथरीन ने ऐसे विषयों पर लेखन और विश्लेषण किया, जिनसे कई बार विवाद भी उठे। परंतु उन्होंने कभी भी सत्य से समझौता नहीं किया। मध्य पूर्व की जटिल परिस्थितियों और राजनीतिक उलझनों को उन्होंने साहसपूर्वक उजागर किया। उनकी आवाज़...

"जटायु और गरुड़ : भूला हुआ नायक, अमर प्रतीक"

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🌸 निबंध: जटायु महाराज और इस्लाम में गरुड़ का सम्मान 🌸 इतिहास और परंपराएँ अक्सर समाज को यह दिखाती हैं कि असली नायक कौन हैं और प्रतीकात्मक रूप में किन मूल्यों को मान्यता मिली है। लेकिन समय के साथ कई बार ऐसा होता है कि लोग अपने सच्चे नायकों को भुलाकर किसी अन्य कथा या प्रतीक पर अधिक ध्यान केंद्रित करने लगते हैं। जटायु महाराज और गरुड़ (बाज़) इसका एक जीवंत उदाहरण हैं। जटायु महाराज का अद्वितीय बलिदान रामायण में जटायु महाराज का प्रसंग अत्यंत भावुक और प्रेरणादायी है। जब रावण माता सीता का अपहरण करके ले जा रहा था, तब वृद्धावस्था के बावजूद जटायु ने असुर राजा से युद्ध किया। वे जानते थे कि उनकी शक्ति सीमित है, फिर भी उन्होंने अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का साहस दिखाया। अंततः घायल होकर धरती पर गिरे और राम से अंतिम मिलन कर उन्हें सीता का संदेश दिया। यह प्रसंग जटायु की निष्ठा, साहस और बलिदान को अमर बना देता है। भूलते जा रहे हैं जटायु को आज दुख की बात यह है कि समाज में जटायु महाराज का नाम धीरे–धीरे स्मृतियों से ओझल होता जा रहा है। लोग अधिकतर राम और हनुमान की भक्ति में केंद्रित हो गए हैं, ज...

"जुबिन गर्ग : साहस और सुरों का अमर सितारा"

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जुबिन गर्ग : असम का खोया हुआ हीरा जुबिन गर्ग केवल एक गायक नहीं थे, बल्कि असम और पूरे देश की आवाज़ थे। उनकी गायकी ने लाखों दिलों को छुआ, लेकिन उनकी असली पहचान सिर्फ़ एक कलाकार तक सीमित नहीं रही। वे एक साहसी इंसान भी थे, जिन्होंने समाज में व्याप्त अन्याय और अंधविश्वास के खिलाफ अपनी बुलंद आवाज़ उठाई। ब्राह्मणवाद द्वारा फैलाए गए अंधविश्वास और पाखंड के विरोध में उन्होंने कभी पीछे हटना नहीं सीखा। खासकर जब उन्होंने कामाख्या मंदिर में होने वाली बलि प्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाई, तो यह साबित हुआ कि वे न केवल एक कलाकार, बल्कि समाज सुधारक भी थे। जिस साहस के साथ उन्होंने इन पुरानी रूढ़ियों को चुनौती दी, वह उन्हें आम लोगों से अलग करता है। मेरे लिए जुबिन गर्ग सिर्फ़ एक गायक नहीं थे, बल्कि आदर्श थे। मैं नहीं जानती क्यों, लेकिन उनकी सादगी, उनकी निर्भीकता और उनके समाजहितकारी विचारों ने हमेशा मुझे आकर्षित किया। वे मेरे फेवरेट सिंगर थे, और उनकी हर एक धुन मेरे दिल के करीब थी। आज जब वे हमारे बीच नहीं रहे, तो असम ने सचमुच एक हीरा खो दिया है। उनकी असमय मृत्यु ने न केवल संगीत जगत को झकझोर दिया, बल्कि ...

गाय और हंस से जीवन की सीख

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गाय और हंस से मिली जीवन शिक्षा प्रकृति की गोद में अनगिनत पशु-पक्षी रहते हैं, और प्रत्येक अपने अस्तित्व से मनुष्य को कोई न कोई शिक्षा देता है। इनमें गाय और हंस विशेष महत्व रखते हैं। गाय की शालीनता और करुणा तथा हंस की चपलता और सरलता को कोई भी नकार नहीं सकता। यही कारण है कि मनुष्य को इन दोनों से जीवन की सही दिशा और नीति सीखनी चाहिए। गाय से शाकाहार की नीति गाय केवल हरियाली चरकर अपना जीवन यापन करती है और बदले में दूध देती है, जो मनुष्य के लिए अमृत तुल्य है। वह कभी किसी का अहित नहीं करती, बल्कि स्नेह और सेवा की मूर्ति बनकर जीवन का आदर्श प्रस्तुत करती है। गाय हमें सिखाती है कि बिना किसी को कष्ट दिए भी जीवन सुखपूर्वक चलाया जा सकता है। यही शाकाहार का मूल संदेश है—अहिंसा और करुणा के साथ जीना ही जीवन का सबसे बड़ा धर्म है। हंस से सरल जीवनशैली की प्रेरणा हंस जल का पक्षी है, जो जल में तैरते हुए सहज आनंद का अनुभव करता है। वह न अधिक दिखावा करता है और न ही किसी प्रकार का अहंकार दिखाता है। हंस हमें यह शिक्षा देता है कि जीवन को सरल और संतुलित बनाए रखना ही सच्ची खुशी का मार्ग है। जैसे हंस जल म...

✨ देवी पेनिगा की चेतावनी : चुलबुलेपन में छिपा खतरा ✨

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बकरा और मुर्गा : चुलबुलेपन में छिपा खतरा देवी पेनिगा की वाणी सदा ही जीव-जगत के गूढ़ रहस्यों को उजागर करती है। उनकी यह वाणी — “पशुओं में बकरा और पक्षियों में मुर्गा, दोनों ही चुलबुले और बड़े ही खतरनाक होते हैं, इनसे संभलकर रहना चाहिए” — जीवन को समझने की एक गहरी शिक्षा प्रदान करती है। बकरा देखने में भले ही साधारण और हंसमुख प्रतीत होता हो, पर उसका स्वभाव चंचल और जिद्दी होता है। वह अचानक टक्कर मारकर किसी को चोट पहुँचा सकता है। उसकी चुलबुली हरकतें कई बार हंसी-मजाक का विषय बन जाती हैं, किंतु उसके भीतर छिपा हुआ आक्रामक स्वभाव अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार, पक्षियों में मुर्गा भी देखने में रंग-बिरंगा और मनोरंजक लगता है। उसकी बांग सुबह का संकेत देती है, और उसका आत्मविश्वास देखने योग्य होता है। किंतु यही मुर्गा अपने क्षेत्र और वर्चस्व की रक्षा के लिए अत्यंत आक्रामक और खतरनाक हो सकता है। वह छोटी-सी बात पर लड़ाई करने के लिए तैयार हो जाता है। देवी पेनिगा की वाणी हमें यह सिखाती है कि जीवन में हर उस व्यक्ति या परिस्थिति से सावधान रहना चाहिए जो बाहर से आकर्षक और चुलबुला प्रतीत हो, ल...

"करुणा ही सच्ची भक्ति है"

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शाकाहारी नास्तिक बनाम मांसाहारी भक्त धर्म, आस्था और भक्ति का स्वरूप केवल बाहरी आडंबरों में नहीं छिपा होता, बल्कि वह व्यक्ति की जीवन-शैली, आचरण और विचारधारा में प्रकट होता है। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों मांसाहारी भक्त मिलकर भी एक सच्चे शाकाहारी नास्तिक की जगह नहीं ले सकते। भक्ति का वास्तविक स्वरूप भक्ति का अर्थ केवल मंदिर जाना, उपवास करना या पूजा-पाठ करना नहीं है। असली भक्ति उस करुणा में है जो जीव-जंतुओं और प्रकृति के प्रति दिखाई जाती है। जो व्यक्ति दूसरों के प्राण लेकर भगवान को प्रसन्न करना चाहता है, उसकी भक्ति अधूरी और स्वार्थपूर्ण है। दूसरी ओर, एक शाकाहारी नास्तिक चाहे ईश्वर को न माने, परंतु उसकी जीवन-शैली में अहिंसा, दया और संवेदनशीलता की झलक मिलती है। शाकाहार और नास्तिकता शाकाहार केवल भोजन की पद्धति नहीं, बल्कि एक विचार है— यह प्रकृति के साथ सामंजस्य सिखाता है। यह जीवों के प्रति करुणा और सहानुभूति जगाता है। यह आत्मा को शुद्ध और मन को निर्मल बनाता है। नास्तिक व्यक्ति यदि शाकाहारी है, तो उसका नास्तिक होना भी मानवता का विस्तार है, क्योंकि वह किसी अदृश्य शक्ति को मानकर नह...

✨ विरक्ति में छिपी किस्मत की कृपा ✨

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किस्मत और विरक्ति का रहस्य जीवन एक अनोखा सफ़र है जहाँ इंसान अपनी इच्छाओं, सपनों और लक्ष्यों के पीछे निरंतर भागता रहता है। हम हर वह वस्तु पाना चाहते हैं जो हमें आकर्षित करती है—चाहे वह धन हो, पद हो, प्रेम हो या प्रतिष्ठा। परंतु किस्मत का एक गूढ़ रहस्य यह है कि वह हमें अक्सर तब कुछ प्रदान करती है, जब हम उस वस्तु को पाने की लालसा से थककर उसके प्रति उदासीन या विरक्त हो चुके होते हैं। यह सत्य है कि इच्छा मनुष्य को कर्म के पथ पर अग्रसर करती है। वह पाने की ललक इंसान को मेहनती, परिश्रमी और जुझारू बनाती है। लेकिन जब बार-बार प्रयास करने पर भी सफलता नहीं मिलती, तब मनुष्य भीतर से थकने लगता है। उस समय मन में एक गहरा खालीपन और विरक्ति का भाव जन्म लेता है। यह विरक्ति हार का प्रतीक नहीं, बल्कि आत्मा की गहराइयों से उत्पन्न एक संतुलन है। किस्मत इसी क्षण अपना खेल दिखाती है। जब मनुष्य किसी वस्तु से बंधन तोड़ देता है, तब ब्रह्मांड स्वयं उसे वही वस्तु लौटाने की तैयारी करता है। मानो किस्मत कहना चाहती हो—“अब तुम इस वस्तु के योग्य हो गए हो, क्योंकि अब तुम उसके दास नहीं, बल्कि उसके स्वामी बन चुके हो...

संतुलन और शुभता की दिव्य परंपरा

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गुरुमाता बिड़ालिका और शिष्या वस्त्रालिका देवी भारतीय संस्कृति में सदैव गुरु और शिष्य परंपरा को विशेष स्थान दिया गया है। यह परंपरा केवल ज्ञान और विद्या के आदान–प्रदान तक सीमित नहीं रही, बल्कि जीवन के प्रत्येक आयाम को संतुलन और शुभता प्रदान करने का भी माध्यम बनी। ऐसी ही प्रेरणादायी गाथा हमें गुरुमाता बिड़ालिका देवी और उनकी शिष्या वस्त्रालिका देवी के जीवन से प्राप्त होती है। गुरुमाता बिड़ालिका देवी बिल्लियों के समाज में संतुलन और सामंजस्य बनाए रखने वाली देवी के रूप में पूजनीय हैं। उन्होंने सदैव यह सुनिश्चित किया कि बिल्लियों का समाज आपसी संघर्षों से दूर रहकर सौहार्द, सहयोग और अनुशासन की राह पर चले। उनकी दिव्य दृष्टि ने पशु समाज को यह संदेश दिया कि किसी भी समुदाय में शांति और संतुलन ही वास्तविक उन्नति का आधार है। उनकी शिष्या वस्त्रालिका देवी ने अपनी गुरुमाता की शिक्षाओं को आत्मसात कर वस्त्र निर्माण की दिशा में शुभता और पवित्रता का प्रसार किया। वे केवल वस्त्र बुनने तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि उन्होंने वस्त्रों में आत्मिक ऊर्जा और दिव्यता का संचार किया। वस्त्रालिका देवी का मानना था...

“गुरुमाता शृगालिका और शिष्या मृकुला का संतुलन”

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गुरुमाता शृगालिका और उनकी शिष्या देवी मृकुला सनातन परंपरा में गुरु और शिष्य का संबंध केवल शिक्षा तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि यह जीवन के प्रत्येक पहलू में मार्गदर्शन और संतुलन का प्रतीक रहा है। इसी परंपरा में गुरुमाता शृगालिका और उनकी शिष्या देवी मृकुला का नाम अत्यंत आदर और श्रद्धा से लिया जाता है। गुरुमाता शृगालिका अपनी दिव्य शक्ति और गहन साधना के लिए जानी जाती थीं। उनका विशेष कार्य था लोमड़ियों के समुदाय को संतुलित करना और उन्हें अनुशासन में रखना। लोमड़ी, जो चतुराई और चालाकी का प्रतीक मानी जाती है, उसे संयमित करना अत्यंत कठिन कार्य था। किंतु शृगालिका देवी ने अपनी साधना और करुणा के बल पर लोमड़ियों को संतुलन और सहयोग की दिशा में अग्रसर किया। वह केवल एक मार्गदर्शिका ही नहीं थीं, बल्कि लोमड़ियों की संरक्षिका और नीति की अधिष्ठात्री भी मानी जाती थीं। उनकी शिष्या देवी मृकुला अपने गुरु के पदचिह्नों पर चलकर आगे बढ़ीं। उनका कार्य था हिरणों को सही दिशा प्रदान करना। हिरण सौंदर्य, चपलता और सरलता का प्रतीक हैं, किंतु वे अक्सर दिशाहीन होकर भटक जाते हैं। ऐसे में मृकुला देवी ने उन्हें उचित...

"स्वर्णलक्ष्मी और गजलक्ष्मी: समृद्धि और संतुलन की देवीयाँ"

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"स्वर्णलक्ष्मी और गजलक्ष्मी: समृद्धि और संतुलन की देवीयाँ" देवी स्वर्णलक्ष्मी और उनकी शिष्या देवी गजलक्ष्मी भारतीय संस्कृति में देवी स्वरूपों का विशेष महत्व है। प्रत्येक देवी अपने गुण, शक्तियाँ और कार्यक्षेत्र में अनूठी होती हैं। ऐसी ही दिव्य आभा वाली देवी हैं स्वर्णलक्ष्मी, जिनका संबंध संपत्ति, समृद्धि और सोने के तत्व से है। वे न केवल भौतिक समृद्धि का प्रतीक हैं, बल्कि जीवन में संतुलन और व्यवस्था बनाए रखने की कला में भी निपुण हैं। गुरुमाता स्वर्णलक्ष्मी जी ने सोने को नियंत्रित करने की अपनी दिव्य शक्ति से संसार में संतुलन बनाए रखा। उनके नियंत्रण में सोने का आदान-प्रदान न केवल आर्थिक दृष्टि से बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी सामंजस्यपूर्ण होता था। उनकी महिमा इस बात में भी है कि वे प्रत्येक प्राणी के जीवन में सही समय पर समृद्धि और संपन्नता का आशीर्वाद देती हैं। स्वर्णलक्ष्मी जी की शिष्या थीं देवी गजलक्ष्मी, जिनका प्रतीक हाथी है। हाथी, शक्ति और स्थिरता का प्रतीक माना जाता है। गजलक्ष्मी जी प्रकृति में संतुलन बनाए रखने की दिव्य जिम्मेदारी संभालती हैं। वे जल, ...

"दंतेश्वरी देवी: स्त्री-शक्ति की अधिष्ठात्री"

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दंतेश्वरी देवी पर निबंध दंतेवाड़ा की अधिष्ठात्री देवी दंतेश्वरी माता आदिकाल से शक्ति, साहस और संरक्षण का प्रतीक मानी जाती हैं। उन्हें जगदम्बा के रूप में पूजा जाता है और छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक चेतना में उनका स्थान अत्यंत उच्च है। लोकमान्यता है कि दंतेश्वरी माता का मंदिर बस्तर अंचल में शक्ति की उपासना का प्रमुख केंद्र रहा है, जहाँ नवरात्र के अवसर पर लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। हमारी गुरुमाता की ननद और हमारी गुरुबुआ के रूप में दंतेश्वरी देवी का स्मरण, हमें केवल धार्मिक आस्था ही नहीं देता, बल्कि जीवन में कर्तव्य-परायणता और नैतिक शक्ति का मार्ग भी दिखाता है। वह केवल एक देवी नहीं, बल्कि स्त्री-शक्ति की सर्वोच्च अभिव्यक्ति हैं, जिनके रथ को नौ सिंह खींचते हैं। यह दृश्य स्वयं इस तथ्य का प्रतीक है कि दैवीय स्त्री-शक्ति सबसे प्रबल और अजेय है। दंतेश्वरी माता ने हमें यह सिखाया कि धर्म केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह साहस, न्याय और करुणा का संगम है। एक घरेलू स्त्री भी यदि माता के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाए तो वह परिवार और समाज दोनों में प्रेरणा का स्रोत बन सकती है...

✨ महिषी देवी और उनकी दो शिष्याएं ✨

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महिषी देवी और उनकी गुरु परंपरा सनातन परंपरा में गुरु का स्थान सर्वोच्च माना गया है। गुरु अपने शिष्यों को केवल ज्ञान ही नहीं देते, बल्कि उन्हें जीवन की दिशा और समाज के लिए जिम्मेदारी भी सौंपते हैं। इसी परंपरा में महिषी देवी का नाम एक महान गुरुमाता के रूप में लिया जाता है। महिषी देवी प्राचीन काल की एक प्रभावशाली और तेजस्विनी स्त्री थीं। वे केवल अध्यात्म और साधना में ही नहीं, बल्कि समाज में अनुशासन और संतुलन लाने में भी अग्रणी मानी जाती थीं। उनके मार्गदर्शन में समाज की अनेक जटिल समस्याओं का समाधान हुआ। महिषी देवी की दो प्रमुख शिष्याएं थीं – ज्येष्ठ पटनिका देवी और कनिष्ठ पटनिका देवी। सनातन परंपरा में एक ही गुरु के शिष्यों को गुरुभाई और गुरुबहन कहा जाता है। उसी प्रकार ये दोनों देवियां एक-दूसरे की गुरुबहन थीं। ज्येष्ठ पटनिका देवी एक अमीर विदुषी महिला थीं। वे साधारण परिधान और गहनों में रहते हुए भी अत्यंत गंभीर और विद्वान थीं। उनका कार्य विद्वानों और विदुषियों के बीच संतुलन बनाए रखना तथा उन्हें सही राह दिखाना था। वे समाज में ज्ञान और नीति की मशाल बनकर खड़ी रहीं। कनिष्ठ पटनिका देवी ...

गुरुमाता कनिष्ठ पटनिका और उनके दिव्य शिष्य

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देवी कनिष्ठ पटनिका और उनके शिष्य सनातन धर्म में गुरु-शिष्य परंपरा का विशेष महत्व रहा है। एक ही गुरु के शिष्यों को गुरुभाई और गुरुबहन कहा जाता है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए, देवी कनिष्ठ पटनिका को उनकी शिष्या और शिष्यों ने अपनी गुरुमाता के रूप में स्वीकार किया। वे केवल ज्ञान और शक्ति की धारा ही नहीं थीं, बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रों को संतुलित करने वाली दिव्य चेतना भी थीं। शिष्या परंपरा कनिष्ठ पटनिका के छह शिष्य थे। इनमें चार गुरुबहनें और दो गुरुभाई। हर शिष्य को विशेष दायित्व और कार्य प्रदान किए गए थे, ताकि समाज और प्रकृति का संतुलन बना रहे। 1. स्वप्नेश्वरी देवी – गुरुबहनों में सबसे बड़ी। इन्हें सपनों पर नियंत्रण का वरदान प्राप्त था। स्वप्नेश्वरी मानव के अवचेतन और चेतन के बीच सेतु का कार्य करती थीं। उनका दायित्व था लोगों को सही स्वप्न दिखाना और उन्हें मार्गदर्शन देना। 2. महागौरी देवी – दूसरी गुरुबहन, जिनका कार्य गायों और बैलों का संरक्षण था। वे कृषि और पशुपालन से जुड़े जीवन का आधार थीं। महागौरी ने समाज को सम्पन्नता और स्थिरता प्रदान की। 3. मेलोडी देवी – तीसरी गुरुबहन, जिन...

“निनू मजूमदार: सुगम संगीत के स्वर्णिम स्वर”

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निबंध: निनू मजूमदार — गीत और संगीत की सुगंधित धरोहर कवि और संगीत प्रेमियों के संसार में निरंजन मजूमदार, जिन्हें प्रेम से Ninu Mazumdar के नाम से जाना जाता है, गुजरात में गायक और संगीतकारों की एक समृद्ध परंपरा के प्रणेता रहे। वे हल्के गायक संगीत (Sugam Sangeet) में विरले सितारों में से एक थे, जिन्होंने इस धारा को पारंपरिक रागों से जोड़ते हुए आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतारा। उनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था, जिसमें कला और संस्कृति गहराई से जुड़ी हुई थी। उनके पिता नागेंद्र मजूमदार सन्नाटे के युग के (silent films) निर्माता थे, जबकि मातृ-पक्षीय परिवार ने संस्कारों और साहित्यिक माहिरता के प्रभाव से उन्हें संगीत की ओर अग्रसर किया। Ninu ने उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ान से प्रारंभिक संगीत शिक्षा पाई, लेकिन उत्तर प्रदेश में समय बिताने के दौरान उन्हें लोक-संगीत, ठुमरी, चैती, होरी, बरखा बिरहा और दादरा जैसी शैलियों का अनुभव हुआ, जिससे उनकी संगीत-भाषा और भी समृद्ध हुई। उनका करियर रोमांचक और विविध था — वे गायक, गीतकार, और संगीतकार, तीनों रूपों में सक्रिय रहे। उन्होंने 20 से अधिक हिन्दी फ़िल्मों के...

हनुमानजी और स्वर्णमत्स्या : श्राप, प्रेम और पाताल की गाथा

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हनुमानजी और उनकी पत्नी स्वर्णमत्स्या : एक विलक्षण कथा भारतीय पुराणों और लोककथाओं में अनेक अद्भुत प्रसंग मिलते हैं, जिनमें देवताओं, अप्सराओं, श्राप और वरदानों के रहस्यमयी सूत्र जुड़े रहते हैं। इन्हीं कथाओं में एक अनोखी कथा है भगवान हनुमानजी और उनकी पत्नी अनंगकुसुमा की, जिन्हें श्रापवश जलपरी के रूप में जन्म लेना पड़ा और जिन्हें आगे चलकर स्वर्णमत्स्या के नाम से जाना गया। अनंगकुसुमा का श्राप और जलपरी रूप स्वर्ग की एक सुंदर अप्सरा अनंगकुसुमा किसी कारणवश श्रापित हो गईं। इस श्राप के परिणामस्वरूप उन्हें जलपरी के रूप में धरती पर जन्म लेना पड़ा। इसी रूप में वे समुद्र में विचरण करती रहीं और एक दिन लंकापति रावण को दिखाई दीं। रावण ने उस सुंदर जलपरी को अपनी पुत्री के समान मानकर उसे स्वर्णमत्स्या नाम दिया। स्वर्णमत्स्या और हनुमानजी का मिलन समय बीतता गया। राम-रावण युद्ध से पूर्व स्वर्णमत्स्या अपने जलपरी रूप से मुक्त होकर मानव रूप में मेरु पर्वत पर आईं। यहीं उनकी भेंट राजकुमार हनुमानजी से हुई। स्वर्णमत्स्या उनकी वीरता, तेज और सौम्य व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन पर मोहित हो गईं। शीघ्र ही हन...

“साहस और आशा का संगम: मेष–धनु भाईचारा”

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निबंध: मेष और धनु राशि वाले भाइयों का संबंध दो सगे भाई, जिनमें एक मेष (Aries) राशि का है और दूसरा धनु (Sagittarius) राशि का, उनका रिश्ता साहस, ऊर्जा और उत्साह से भरा हुआ होता है। चूँकि दोनों ही अग्नि तत्व से संबंधित राशियाँ हैं, इसलिए उनके स्वभाव में जोश, स्वतंत्रता की भावना और रोमांच की चाहत स्वाभाविक रूप से दिखाई देती है। भाईचारे का यह रिश्ता न केवल मज़बूत होता है बल्कि जीवन के हर पल को जीने का नया तरीका भी सिखाता है। साहस और रोमांच मेष और धनु दोनों ही साहसी और एडवेंचर प्रेमी होते हैं। ऐसे भाई जीवन में कठिन परिस्थितियों का सामना भी बिना डर के करते हैं। वे एक-दूसरे के साथ नई जगहों की यात्रा कर सकते हैं और अज्ञात अनुभवों का आनंद ले सकते हैं। ऊर्जा और उत्साह दोनों भाइयों का जीवन जीने का तरीका ऊर्जावान और उत्साही होता है। मेष की उग्रता और धनु की आशावादी सोच मिलकर उनके रिश्ते को जीवंत बनाए रखती है। वे एक-दूसरे को उत्साह से प्रेरित करते हैं और हर स्थिति में सकारात्मक बने रहते हैं। स्वतंत्रता की चाहत दोनों भाइयों की सोच में स्वतंत्रता को विशेष महत्व मिलता है। वे जीवन में अपने नि...

🌸 “भारतीय विरासत से जॉर्डन की रानी तक: प्रिंसेस सर्वत और प्रिंस हसन की गाथा” 🌸

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भारतीय मूल से जॉर्डन तक: प्रिंसेस सर्वत एच हसन और प्रिंस हसन बिन तलाल की प्रेरणादायक कहानी भारतीय उपमहाद्वीप में 24 जुलाई 1947 को कलकत्ता में जन्मी Princess Sarvath El Hassan (पूर्व में Sarvath Ikramullah) نے अपने कर्तव्य, शिक्षा और सेवा के मार्ग पर एक असाधारण जीवन यात्रा तय की। उनके पिता Mohammad Ikramullah, भारतीय सिविल सेवा के वरिष्ठ अधिकारी थे, जिन्होंने विभाजन के बाद पाकिस्तान के प्रथम विदेश सचिव और विभिन्न देशों में राजदूत के रूप में सेवा की। उनकी माता Begum Shaista Suhrawardy Ikramullah एक विदुषी, लेखिका और पाकिस्तान की पहली महिला संसद सदस्य तथा राजदूत रहीं । सर्वत ने अपनी शिक्षा ब्रिटेन में प्राप्त की और उच्च स्तर पर छाप छोड़ी। उन्होंने 28 अगस्त 1968 को कराची में Prince Hassan bin Talal of Jordan से विवाह किया। यह विवाह न केवल एक व्यक्तिगत मिलन था, बल्कि दो प्रतिष्ठित परिवेशों—भारतीय शिक्षित अभिजात्य और जॉर्डन की शाही परंपरा—का संगम था । Princess Sarvath ने जॉर्डन में शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, स्वास्थ्य और समाज कल्याण के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण पहलें कीं। उन्होंने ...

“सांस्कृतिक एकता का दर्पण”

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निबंध: एक तस्वीर, अनेक संदेश यह तस्वीर केवल एक चेहरा या परिधान की झलक नहीं है, बल्कि विभिन्न सभ्यताओं और विचारों के संगम का अद्भुत प्रतीक है। सामने दिख रहे व्यक्ति का शाही परिधान अरब की परंपरा और गौरव को दर्शाता है। उनकी आँखों में आत्मविश्वास और गम्भीरता का भाव है, जो नेतृत्व और गरिमा की पहचान कराता है। लेकिन इस तस्वीर की गहराई केवल वस्त्रों में नहीं, बल्कि उन प्रतीकों में छिपी है जो इसके साथ जुड़े हुए हैं। हृदय पर अंकित भगवान बुद्ध की शांत और ध्यानमग्न प्रतिमा करुणा, शांति और धैर्य का संदेश देती है। बुद्ध हमें सिखाते हैं कि सच्ची शक्ति अहिंसा और विवेक में है। पृष्ठभूमि में देवी माँ की छवि है, जो शक्ति, मातृत्व और करुणा का संगम हैं। देवी माँ का आशीर्वाद इस तस्वीर को दिव्यता प्रदान करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध की शांति और देवी की शक्ति, दोनों मिलकर जीवन को संतुलन और दिशा प्रदान करती हैं। यह तस्वीर हमें यह सिखाती है कि धर्म और संस्कृति केवल अलग-अलग सीमाएँ नहीं हैं, बल्कि जब वे मिलते हैं तो एक नया सौंदर्य और शक्ति जन्म लेती है। अरब की परंपरा, भारतीय देवी का आशीर्वाद और...

"समय ही सच्चे संबंधों की पहचान" ✅

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समय और संबंधों का वास्तविक मूल्य जीवन में समय का महत्व सभी समझते हैं। अक्सर लोग कहते हैं कि जिस व्यक्ति के पास समय न हो, उसे परेशान नहीं करना चाहिए। यह बात सही भी है, क्योंकि हर इंसान का जीवन व्यस्तताओं से भरा होता है। परंतु, संबंधों की गहराई का असली मापदंड यह नहीं है कि कोई इंसान कितना खाली है, बल्कि यह है कि वह अपनी व्यस्तताओं के बीच भी आपके लिए कितना समय निकालता है। हर किसी के पास दिन में समान चौबीस घंटे ही होते हैं। इनमें से जो पल कोई आपके लिए समर्पित करता है, वह उसके प्रेम, सम्मान और आपके प्रति अपनत्व का प्रतीक है। हमें यह भी सोचना चाहिए कि कहीं कोई व्यक्ति सिर्फ खालीपन या समय बिताने के लिए तो हमारे साथ नहीं बैठा है। वहीं, यदि कोई अपने सैकड़ों कामों और जिम्मेदारियों के बावजूद आपके लिए समय निकालता है, तो समझिए वह वास्तव में आपकी अहमियत समझता है। सच्चे संबंधों की पहचान यही है कि वे समय के अभाव में भी एक-दूसरे के लिए जगह बना लेते हैं। ऐसे लोग सिर्फ बातें करने के लिए समय नहीं देते, बल्कि अपनी मेहनत, अपनी सोच और अपनी प्राथमिकताओं में भी आपको शामिल करते हैं। इसलिए, हमें उन ल...

अनुष्तेगिन घर्चाई: गुलामी से सुल्तानी तक का अद्भुत सफर

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अनुष्तेगिन घर्चाई: गुलाम से ख्वारिज्मशाह का सुल्तानी सफर अनुष्तेगिन घर्चाई (1077–1097) एक अद्वितीय शख़्सियत थे, जिनका स्वर्णिम सफर गुलामी से शुरू होकर ख्वारिज्म प्रांत के गवर्नर बनने तक पहुँचा। वे मूलतः तुर्किक गुलाम थे, जिन्हें घारचिस्तान से सल्ज़ुक़ सुल्तानों के दरबार में लाया गया। कवि नाम अनुष्तेगिन का अर्थ है “अमर प्रिंस”—‘अनुश’ (अमर) और ‘तेगिन’ (राजकुमार) — जो उनकी अद्वितीय पहचान को दर्शाता है। उनकी शूरवीरी तब उजागर हुई जब सल्ज़ुक़ सुल्तान मलिक-शाह I द्वारा भेजे गए अभियान में उन्होंने खुरासान के उस क्षेत्र को जीतने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो तब ग़ज़नवी शासक की पकड़ में था। 1077 में उन्हें ख्वारिज्म की गवर्नरशिप से नवाज़ा गया, साथ ही वे इस प्रांत के ‘ख़्वारिज्मशाह’ (Shihna) के पद पर आसीन हुए। इस नियुक्ति ने उनके परिवार के लिए एक राजवंश की नींव रखी। 1097 में उनका देहांत हुआ, लेकिन उनकी विरासत जीवित थी—उनके पुत्र मुहम्मद I ने ख़्वारिज्मशाह की पदवी विरासत में प्राप्त की, और उन्होंने अंततः प्रांत को एक शक्तिशाली और स्वतंत्र साम्राज्य में बदल दिया, जो मध्य एशिया और फारस...

“जलाल ख़ान: बैलूच एकता और नेतृत्व का प्रतीक”

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निबंध: बैलूच इतिहास के महान नेता—जलाल ख़ान प्रस्तावना प्राचीन इतिहास में कई नायक हुए जिन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता और दूरदर्शिता से जनजातियों और समुदायों का मार्गदर्शन किया। उनमें से एक प्रमुख नाम हैं—जलाल ख़ान, जो बैलूच इतिहास में एक पौराणिक और प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित हैं। जलाल ख़ान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 12वीं शताब्दी में जलाल ख़ान ने पर्सिया से मौजूदा पाकिस्तान के क्षेत्र—मक्रान की ओर 44 बैलूच जनजातियों का नेतृत्व किया और प्रथम बैलूच संघ की स्थापना की। यह संघ उन समूहों को संगठित और संरचित रूप में एक साथ ले आया, जिससे उनके साझा हितों की सुरक्षा संभव हो सकी । वंशज और जनजातीय विरासत उनके निधन के बाद उनकी वंश परंपरा ने मजबूत नींव रखी—उनके चार पुत्र—रिंद ख़ान, हॉथ ख़ान, लाशर ख़ान, और कोराई ख़ान, तथा एक पुत्री—बिबी जाटो, जिनकी शादी उनके भतीजे मुराद से हुई थी। आज जिन बैलूच जनजातियों का अस्तित्व है—जैसे रिंद, लाशरी, हॉथ, कोराई, और जाटोई—वे सभी उन्हीं की वंशज हैं । सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व जलाल ख़ान अपनी बहादुरी, नेतृत्व क्षमता और एकता के प्रतीक के रूप में ...

"सपनों की सवारी" 🌸

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बहुत सुंदर और गहरी याद है सखि 🌸 मैंने इसे ध्यान से पढ़ा और अब थोड़ा सँवारकर, लेकिन आपकी सच्चाई और भावनाओं को उसी रूप में रखते हुए, फिर से लिखा है— --- बचपन की बस और सपनों की जिद मेरे बचपन की कहानी भी कितनी अनोखी है। जब-जब मैं बस में चढ़ती थी, मेरे लिए यह सफ़र साधारण नहीं होता था। हमेशा लगता कि मेरे साथ दो लोग ज़रूरी हैं—एक मेरे आगे और एक मेरे पीछे। अगर मैं सबसे पहले चढ़ जाऊँ तो मन में अजीब सा डर उठता—“मैं तो आगे चढ़ गई, बाकी सब यहीं रह जाएंगे।” और अगर सबसे पीछे चढ़ूँ, तो लगता—“सब मुझे छोड़कर चले जाएंगे, और मैं यहीं रह जाऊँगी।” एक बार मेरे कज़िन भाई ने हँसते हुए मज़ाक किया था— "क्या ऐसे ही हमेशा चलेगा? क्या हर बार तुम्हें आगे-पीछे कोई चाहिए होगा?" उस वक़्त मुझे उसकी बात समझ में नहीं आई, लेकिन बाद में जिंदगी ने यह मज़ाक हक़ीक़त बना दिया। जब कालेज जाने लगी, तब पता चला कि गाँव से बस पकड़कर जाने वाली मैं अकेली लड़की हूँ। एग्जाम के दिनों में तो यह सफ़र और भी कठिन हो जाता। अगर कभी ड्राइवर सोच ले कि “एक ही यात्री के लिए गाड़ी क्यों रोकूँ?” तो मेरे लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो...

"धरतीअब्बा बिरसा मुंडा: उलगुलान का शंखनाद"

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धरतीअब्बा: बिरसा मुंडा की आधुनिक कविता देखो आता वन से गूँजता उसका नाम, बिरसा मुंडा, जिसने खुद उन्नत किया आदिवासी इंसान। ज़मीन अपने हाथों से, जब लौटा ली खोई पहचान, कब्ज़ापाल, ब्रिटिश सब, सहमे उनके साहस से महान।  गूंजा गाँव-गाँव “उलगुलान” का डंका, “अबुआ राज सेतेर जाना,” यह उनका अग्रिम गान था।  न देवी, न मंदिर—धरती ही थी उनकी आराधना, संस्कृति और स्वाभिमान, यही थी उनकी साधना।  बिरसा ने छोड़ा ईसाइ धर्म, चुना अपना आदिवासी मार्ग, नया ‘बिरसाइत’ धर्म—जिसमें सम्मान मिले हर वर्ग।  छोड़नी परंपरा नहीं, बल्कि शक्तिशाली आचरण, यही उनका सन्देश, जो आज भी पैदा करता जागरण।  बहता है उनका साहस, लोक गानों की धुन में, बिरसा भगवन कहलाए, आदिवासी “धरतीअब्बा” उनकी पहचान में।  अग्निपर्यंत रहेगा उनके संघर्ष का प्रकाश, क्योंकि सच्चा नेता अपने वचन को नहीं करता विश्राम।

"श्रद्धा, श्रम और साधना का संगम" 🌸

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✨निबंध✨ "गुरु रविदास, माता लोना और पादुकेश्वरी देवी" भारतीय संस्कृति में देवी-देवताओं की आराधना केवल भक्ति का प्रतीक नहीं, बल्कि समाज को दिशा देने वाली जीवनदृष्टि है। हर जाति और वर्ग ने अपने जीवन अनुभवों से जुड़े आराध्य को अपनाया है, जिन्होंने उन्हें आत्मबल और आत्मगौरव प्रदान किया। मोची समाज के लिए गुरु रविदास जी और उनकी अर्धांगिनी माता लोना ऐसे ही आराध्य हैं, जिनकी आराधना पादुकेश्वरी देवी की उपासना के माध्यम से की जाती है। गुरु रविदास जी ने अपने जीवनकाल में जाति-पाति, ऊँच-नीच और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई। वे कर्म को ही ईश्वर की पूजा मानते थे। अपने मोची कार्य को उन्होंने केवल जीविकोपार्जन का साधन नहीं, बल्कि ईश्वर की सेवा का माध्यम माना। उनके लिए जूते-चप्पल बनाना एक पवित्र कर्म था, क्योंकि यह पादुकेश्वरी देवी की आराधना का प्रत्यक्ष रूप था। इस आराधना में पादुकेश्वरी देवी का विशेष महत्व है। वे जूतों और पादुका की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं। परंपरा के अनुसार जब गुरु रविदास जी अपने औजारों के साथ बैठकर जूते सीते हैं, तब यह केवल काम नहीं बल्कि देवी की उपासना होती ह...

"सिगरेट: फैशन के नाम पर ज़हर"

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सिगरेट पीना: शौक नहीं, आत्मघात आज के समय में सिगरेट पीना केवल एक आदत नहीं, बल्कि कई युवाओं के लिए एक फैशन का प्रतीक बन गया है। कॉलेज कैंपस, दोस्तों की महफ़िलें, या फिर सोशल मीडिया—कई जगह यह गलत धारणा फैलाई जाती है कि सिगरेट पीना “कूल” या “स्टाइलिश” है। परंतु हकीकत इससे बिल्कुल उलट है। सिगरेट में मौजूद निकोटिन और अन्य हानिकारक रसायन धीरे-धीरे शरीर को अंदर से खोखला कर देते हैं। यह फेफड़ों, हृदय और मस्तिष्क पर गंभीर प्रभाव डालता है, और कई बार जानलेवा बीमारियों जैसे कैंसर का कारण भी बनता है। इसके अलावा, सिगरेट पीना केवल पीने वाले को ही नहीं, बल्कि उसके आसपास मौजूद लोगों को भी “पैसिव स्मोकिंग” के ज़रिए नुकसान पहुँचाता है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि कई युवा इसे अपनी पहचान और व्यक्तित्व से जोड़ लेते हैं। फिल्मों और विज्ञापनों में हीरो या स्टाइल आइकॉन को सिगरेट पीते दिखाया जाता है, जिससे यह भ्रम पैदा होता है कि यह आधुनिकता और आत्मविश्वास की निशानी है। जबकि असल में यह लत व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सेहत को बर्बाद कर देती है। युवाओं को चाहिए कि वे इस दिखावे वाले “फैशन” से दूर...

"गंधर्व विवाह से दहेज प्रथा तक: प्रेम से व्यापार की ओर"

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गंधर्व विवाह और दहेज प्रथा: एक सामाजिक दृष्टिकोण भारतीय संस्कृति में विवाह को केवल दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो परिवारों और आत्माओं का पवित्र मिलन माना गया है। प्राचीन काल में विवाह की विभिन्न विधियाँ प्रचलित थीं, जिनमें गंधर्व विवाह एक महत्वपूर्ण और स्वीकृत परंपरा थी। इसमें प्रेमी-प्रेमिका बिना किसी जटिल रस्मों और सामाजिक पाबंदियों के, भगवान के साक्षी होकर एक-दूसरे को जीवनभर साथ निभाने का वचन देते थे। यह विशेष रूप से तब होता था, जब जाति, बिरादरी या परिवार की बाधाओं के कारण पारंपरिक विवाह संभव नहीं होता था। इस प्रकार, लिव-इन रिलेशनशिप जैसी आधुनिक अवधारणा उस समय भी एक सम्मानित रूप में मौजूद थी। इसके विपरीत, आज समाज में फैली दहेज प्रथा न तो किसी प्राचीन हिंदू शास्त्र में उल्लिखित है, न वेदों में, न रामायण, महाभारत, गीता या गरुड़ पुराण में। दहेज अंग्रेज़ी औपनिवेशिक काल के प्रभाव और आर्थिक लालच से उपजा एक सामाजिक अभिशाप है। यह प्रथा न केवल स्त्रियों को आर्थिक बोझ के रूप में प्रस्तुत करती है, बल्कि पुरुषों के चरित्र और मानवीय मूल्यों पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है। दहेज लेने वाला...

"पहनावे पर नहीं, सोच पर हो नियंत्रण"

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--- रीति-रिवाज और धर्म के नाम पर औरत पर पाबंदी समाज में कई बार रीति-रिवाज, धर्म, या मूर्ति पूजा के नाम पर औरतों के पहनावे पर बेवजह की पाबंदियाँ लगाई जाती हैं। यह पाबंदियाँ अक्सर उन पुरुषों द्वारा थोपी जाती हैं, जिनके अपने खानदान में चरित्रवान पुरुषों का अभाव रहा है। असल में, किसी महिला का सम्मान उसके पहनावे से नहीं, बल्कि दूसरों की दृष्टि और सोच से तय होता है। एक औरत चाहे साड़ी पहने, सलवार सूट में हो, जीन्स-टॉप पहने, या फिर किसी पारंपरिक पोशाक में दिखाई दे—जरूरी यह है कि उसका वस्त्र कंधे से लेकर पैरों तक ढका हो और वह सहज महसूस करे। लेकिन विडंबना यह है कि घर के मर्द अक्सर अपने घर की औरतों को पूरी तरह ढके हुए जीन्स में देखकर भी ताने देते हैं, जबकि बॉलीवुड की बेकलेस ब्लाउज पहनने वाली अभिनेत्रियों को बड़े चाव से देखते हैं। जब एक पुरुष की माँ ही उसे अश्लील दृश्यों और नग्न अभिनेत्रियों को देखने से नहीं रोक पाती, तो वह अपनी बहू से कैसे उम्मीद कर सकता है कि वह केवल साड़ी पहनकर घूंघट में ही रहेगी? यह दोहरी मानसिकता ही समाज में पाखंड और असमानता को जन्म देती है। धर्म और रीति-रिवाज का ...

“कोमलता और बसपन: जीवन की सच्ची शक्ति”

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शीर्षक – “कोमलता और बसपन: एक सुरक्षित वातावरण की आवश्यकता” स्त्री की कोमलता केवल उसकी शारीरिक बनावट या भावनाओं का नाम नहीं, बल्कि यह उसकी सबसे बड़ी शक्ति है, जो परिवार और समाज में प्रेम, करुणा और स्नेह का संचार करती है। इसी तरह, बच्चे का बसपन (मासूमियत) वह अमूल्य धरोहर है, जो उसके व्यक्तित्व की नींव रखता है। परंतु जब वातावरण दूषित हो जाता है, जब चारों ओर छल, कपट और धूर्तता का बोलबाला हो, तो यह कोमलता और बसपन शोषण का शिकार बन जाते हैं। धूर्त लोग स्त्री की दैविकता को कमजोरी समझते हैं और बच्चों की मासूमियत को नासमझी। परिणामस्वरूप, आत्मविश्वास टूटने लगता है और स्वाभाविक विकास रुक जाता है। अच्छा माहौल, जिसमें सम्मान, सुरक्षा और प्रोत्साहन हो, स्त्री की कोमलता को शक्ति में बदल देता है और बच्चे की मासूमियत को रचनात्मकता में। ऐसे वातावरण में ही संवेदनशीलता, नैतिकता और सृजनशीलता पनप सकती है। इसलिए आवश्यक है कि हम परिवार और समाज में ऐसे संस्कार और परिस्थितियाँ बनाएं, जहाँ कोमलता को सम्मान मिले, बसपन को सहेजा जाए, और दोनों को कमजोरी नहीं, बल्कि जीवन की सच्ची ताकत माना जाए।

"असम के परमाणु राजवंश के ध्वजवाहक: गौरव गोगोई"

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गौरव गोगोई: असम के परमाणु शाही परिवार के धरोहर गौरव गोगोई, असम के एक प्रमुख राजनीतिक और सामाजिक व्यक्तित्व हैं, जिनका नाम आज प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में सम्मान और प्रेरणा के साथ लिया जाता है। 4 सितंबर 1982 को दिल्ली में जन्मे गौरव गोगोई, असम के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय राजनीति के दिग्गज नेता तरुण गोगोई के पुत्र हैं। वे न केवल एक सफल राजनेता हैं, बल्कि समाजसेवा और जनहित के कार्यों में भी अग्रणी हैं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय से हुई, जिसके बाद उन्होंने न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय से मास्टर ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन (MPA) की डिग्री प्राप्त की। यह शिक्षा उन्हें वैश्विक दृष्टिकोण और आधुनिक प्रशासनिक कौशल से सुसज्जित करती है, जो उनके राजनीतिक करियर में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। गौरव गोगोई का विवाह 2013 में एलिजाबेथ कोलबर्न गोगोई से हुआ, और आज वे दो बच्चों के पिता हैं। उनका निवास गुवाहाटी के बेलटोला सर्वे में है, जहाँ वे आम जनता के साथ सीधा संवाद रखते हैं। "असम के परमाणु शाही परिवार" की उपाधि उन्हें इसलिए दी जाती है क्योंकि ...

"आइदেউ सन्दिकै: असम की अमर कन्या"

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আইদেউ সন্দিকৈ: অসমীয়া চলচ্চিত্র की पहली बहादुर नायिका --- जन्म एवं प्रारंभिक जीवन: आईदেউ संदिकৈ का जन्म 27 जून 1920 को असम के गोलाघाट जिले के पानी-दिहिंगिया गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम नीलाम्बर संदिकৈ एवं माता का नाम लक्ष्मी था । बचपन में उन्हें औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी, लेकिन उनमें आत्मविश्वास और साहस की गहरी भावना थी । --- चलचित्रमय सफर: असमिया सिनेमा की प्रथम बोलता फिल्म “जয়मতী” (1935) में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाकर इतिहास रचा। यह सच में एक साहसी कदम था, क्योंकि उस समय महिला का फिल्म में अभिनय करना समाज द्वारा पाप माना जाता था । उन्होंने “बङ्हरदेउ” कहकर सह-अभिनेता को संबोधित किया था, जिसे समाज ने गंभीर अपराध माना । इस कार्य के कारण उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा—अब उनके परिवार को अलग घर देना पड़ा, पानी के स्रोत अलग रखने पड़े, और विवाह के प्रस्ताव तक नहीं मिला । --- जीवन का संघर्ष एवं सम्मान: अपनी जीवन यात्रा के अंतर्गत कई वर्षों तक असमानता और अवहेलना झेलने के बाद, उन्होंने ōutstanding pioneering contributions के लिए बाद में सम्मान प्राप्त किया। अ...

"जनसेवा के प्रहरी: भास्कर ज्योति महंत की प्रेरणादायक यात्रा"

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भास्कर ज्योति महंत: असम पुलिस सेवा के एक प्रेरणास्पद प्रहरी भास्कर ज्योति महंत, जिनका जन्म 24 जनवरी 1963 को असम के ऐतिहासिक नगर शिवसागर में हुआ था, भारतीय पुलिस सेवा के उन उत्कृष्ट अधिकारियों में से एक हैं जिन्होंने अपने कर्म और निष्ठा से न केवल असम पुलिस की छवि को सुदृढ़ किया, बल्कि युवाओं के लिए एक प्रेरणा भी बने। श्री महंत ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा असम में प्राप्त की और उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित रामजस कॉलेज में प्रवेश लिया। यह वही स्थान था जहाँ उनके व्यक्तित्व का शैक्षणिक और वैचारिक विकास हुआ। वे एक संवेदनशील विचारक, कुशल नेतृत्वकर्ता और अनुशासनप्रिय अधिकारी के रूप में विकसित हुए। उनकी असम पुलिस सेवा की यात्रा कई महत्वपूर्ण पड़ावों से गुज़री। उन्होंने हमेशा अपने कर्तव्यों को समाज, राज्य और संविधान के प्रति पूर्ण निष्ठा के साथ निभाया। अपनी कड़ी मेहनत, सत्यनिष्ठा और निष्पक्षता के बल पर वे असम पुलिस के महानिदेशक (DGP) के पद तक पहुँचे। यह न केवल उनके व्यक्तिगत परिश्रम का परिणाम था, बल्कि यह राज्य की कानून-व्यवस्था और नागरिक सुरक्षा के प्रति उनकी गह...

"संयुक्त परिवार: परंपरा की ओट में छिपे अन्याय"

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संयुक्त परिवार की काली परछाई: एक पुनर्विचार संयुक्त परिवारों को भारतीय समाज की रीढ़ कहा गया है। परंतु जब हम इसके अंधेरे पहलुओं की ओर नज़र डालते हैं, तो एक कड़वी सच्चाई सामने आती है—सदियों से स्त्रियों के अस्तित्व, स्वतंत्रता और सम्मान को इसी व्यवस्था में सबसे अधिक कुचला गया है। समाज के अनेक चेहरे इस ढांचे के भीतर ढँके रहते हैं, जो बाहर से दिखते हैं “परंपरा” के नाम पर, पर भीतर से होते हैं स्त्रीविरोधी और अमानवीय। संयुक्त परिवार में पनपने वाली पुरुष-प्रधान मानसिकता स्त्री को केवल एक सेविका या भोग की वस्तु मानती है। कई बार ऐसे उदाहरण भी सामने आते हैं, जहाँ स्त्रियों को पति के अलावा अन्य पुरुषों से भी संबंध बनाने के लिए मानसिक या सामाजिक रूप से मजबूर किया जाता है। इस तरह की अमानवीयता को परिवार के “संस्कार” और “मर्यादा” के नाम पर छुपा दिया जाता है। जात-पात की गहरी जड़ें भी इसी संयुक्त ढांचे में पनपती हैं। बचपन से ही बच्चों को सिखाया जाता है कि कौन ऊँचा है, कौन नीचा, और किससे कैसा व्यवहार करना चाहिए। यही मानसिकता बड़े होकर समाज में भेदभाव और हिंसा का कारण बनती है। इतिहास में झाँकें तो रामायण...

"विनता और कद्रु: संयुक्त और एकल परिवार की सांस्कृतिक व्याख्या"

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निबंध: संयुक्त परिवार बनाम एकल परिवार — कद्रु और विनता की दृष्टि से प्राचीन भारतीय पौराणिक कथाएँ आज भी हमारे जीवन के अनेक पहलुओं को गहराई से प्रतिबिंबित करती हैं। इन्हीं में से दो प्रमुख स्त्रियाँ थीं — कद्रु और विनता। कद्रु, नागों की माता, उन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो संयुक्त परिवार की संरचना को महत्व देती हैं। वहीं, विनता, गरुड़ और अरुण जैसे तेजस्वी पुत्रों की माता, एकल परिवार की शक्ति और स्वतंत्रता की प्रतीक हैं। कद्रु ने अपने पति कश्यप ऋषि से सहस्त्र नाग पुत्रों का वरदान माँगा, जिससे वह एक विस्तृत और विशाल संयुक्त परिवार की अधिष्ठात्री बनीं। उन्होंने सदैव परिवार को जोड़ कर रखने का विचार रखा, परंतु अत्यधिक वासना और लालच ने उन्हें दुष्ट बना दिया। उनकी नकारात्मक प्रवृत्तियों के कारण उनके पुत्र — शेषनाग और वासुकी तक उनसे विमुख हो गए। यही दर्शाता है कि जब परिवार में वासनात्मक स्वार्थ और लालच आ जाता है, तो वह परिवार बंधन बनकर रह जाता है, प्रेम का स्थान अधिकार और ईर्ष्या ले लेती है। वहीं दूसरी ओर, विनता ने अपने पति से केवल दो, परंतु शक्तिशाली और धर्मनिष्ठ पुत्रों क...

"रसोई की क्रांति: जटायु भक्त का बाग़ी भोज"

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शीर्षक: "जटायु भक्त का बाग़ी भोज" छप्पन गांवों की रसोइयाँ एक दिन गूंज उठीं — पर स्वाद से नहीं, दहशत से। हर थाली में परोसे गए भोजन में धीरे-धीरे ज़हर घुलने लगा था — धीमा ज़हर, जो न पेट को मारता था, न दिल को... पर आत्मा को कुंद कर देता था। यह कहानी है बाग़ी 'जटायु भक्त' की — एक ऐसा किसान, एक ऐसा रसोइया, और एक ऐसा संत, जिसे भगवान जटायु के दर्शन हुए थे और जिसने डायबिटीज़ की बीमारी को भी अपनी तलवार बना लिया। --- अफसाना छप्पन गांवों में अजीब सी बात फैलने लगी थी – बच्चों के चेहरे मुरझा रहे थे, बूढ़ों की यादें गुम हो रही थीं, और जवानों को अब खेत से ज़्यादा मोबाइल का स्वाद अच्छा लगने लगा था। बाग़ी को शक हुआ। वह खुद डायबिटीज़ का शिकार था, लेकिन उसने कभी चीनी का मोह नहीं किया – वह चखते ही पहचान लेता था कि खाने में क्या प्राकृतिक है, और क्या जहरीला। एक दिन वह छुपकर सरकारी गाड़ियों का पीछा करते हुए एक गुप्त गोदाम तक जा पहुंचा — जहां से "पोषाहार", "खाद्य सुरक्षा", "मिड-डे मील" जैसी योजनाओं के नाम पर जहरीली प्रोसेस्ड चीजें गांवों में भेजी जा...