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“कोमलता और बसपन: जीवन की सच्ची शक्ति”

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शीर्षक – “कोमलता और बसपन: एक सुरक्षित वातावरण की आवश्यकता” स्त्री की कोमलता केवल उसकी शारीरिक बनावट या भावनाओं का नाम नहीं, बल्कि यह उसकी सबसे बड़ी शक्ति है, जो परिवार और समाज में प्रेम, करुणा और स्नेह का संचार करती है। इसी तरह, बच्चे का बसपन (मासूमियत) वह अमूल्य धरोहर है, जो उसके व्यक्तित्व की नींव रखता है। परंतु जब वातावरण दूषित हो जाता है, जब चारों ओर छल, कपट और धूर्तता का बोलबाला हो, तो यह कोमलता और बसपन शोषण का शिकार बन जाते हैं। धूर्त लोग स्त्री की दैविकता को कमजोरी समझते हैं और बच्चों की मासूमियत को नासमझी। परिणामस्वरूप, आत्मविश्वास टूटने लगता है और स्वाभाविक विकास रुक जाता है। अच्छा माहौल, जिसमें सम्मान, सुरक्षा और प्रोत्साहन हो, स्त्री की कोमलता को शक्ति में बदल देता है और बच्चे की मासूमियत को रचनात्मकता में। ऐसे वातावरण में ही संवेदनशीलता, नैतिकता और सृजनशीलता पनप सकती है। इसलिए आवश्यक है कि हम परिवार और समाज में ऐसे संस्कार और परिस्थितियाँ बनाएं, जहाँ कोमलता को सम्मान मिले, बसपन को सहेजा जाए, और दोनों को कमजोरी नहीं, बल्कि जीवन की सच्ची ताकत माना जाए।

"असम के परमाणु राजवंश के ध्वजवाहक: गौरव गोगोई"

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गौरव गोगोई: असम के परमाणु शाही परिवार के धरोहर गौरव गोगोई, असम के एक प्रमुख राजनीतिक और सामाजिक व्यक्तित्व हैं, जिनका नाम आज प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में सम्मान और प्रेरणा के साथ लिया जाता है। 4 सितंबर 1982 को दिल्ली में जन्मे गौरव गोगोई, असम के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय राजनीति के दिग्गज नेता तरुण गोगोई के पुत्र हैं। वे न केवल एक सफल राजनेता हैं, बल्कि समाजसेवा और जनहित के कार्यों में भी अग्रणी हैं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय से हुई, जिसके बाद उन्होंने न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय से मास्टर ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन (MPA) की डिग्री प्राप्त की। यह शिक्षा उन्हें वैश्विक दृष्टिकोण और आधुनिक प्रशासनिक कौशल से सुसज्जित करती है, जो उनके राजनीतिक करियर में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। गौरव गोगोई का विवाह 2013 में एलिजाबेथ कोलबर्न गोगोई से हुआ, और आज वे दो बच्चों के पिता हैं। उनका निवास गुवाहाटी के बेलटोला सर्वे में है, जहाँ वे आम जनता के साथ सीधा संवाद रखते हैं। "असम के परमाणु शाही परिवार" की उपाधि उन्हें इसलिए दी जाती है क्योंकि ...

"आइदেউ सन्दिकै: असम की अमर कन्या"

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আইদেউ সন্দিকৈ: অসমীয়া চলচ্চিত্র की पहली बहादुर नायिका --- जन्म एवं प्रारंभिक जीवन: आईदেউ संदिकৈ का जन्म 27 जून 1920 को असम के गोलाघाट जिले के पानी-दिहिंगिया गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम नीलाम्बर संदिकৈ एवं माता का नाम लक्ष्मी था । बचपन में उन्हें औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी, लेकिन उनमें आत्मविश्वास और साहस की गहरी भावना थी । --- चलचित्रमय सफर: असमिया सिनेमा की प्रथम बोलता फिल्म “जয়मতী” (1935) में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाकर इतिहास रचा। यह सच में एक साहसी कदम था, क्योंकि उस समय महिला का फिल्म में अभिनय करना समाज द्वारा पाप माना जाता था । उन्होंने “बङ्हरदेउ” कहकर सह-अभिनेता को संबोधित किया था, जिसे समाज ने गंभीर अपराध माना । इस कार्य के कारण उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा—अब उनके परिवार को अलग घर देना पड़ा, पानी के स्रोत अलग रखने पड़े, और विवाह के प्रस्ताव तक नहीं मिला । --- जीवन का संघर्ष एवं सम्मान: अपनी जीवन यात्रा के अंतर्गत कई वर्षों तक असमानता और अवहेलना झेलने के बाद, उन्होंने ōutstanding pioneering contributions के लिए बाद में सम्मान प्राप्त किया। अ...

"जनसेवा के प्रहरी: भास्कर ज्योति महंत की प्रेरणादायक यात्रा"

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भास्कर ज्योति महंत: असम पुलिस सेवा के एक प्रेरणास्पद प्रहरी भास्कर ज्योति महंत, जिनका जन्म 24 जनवरी 1963 को असम के ऐतिहासिक नगर शिवसागर में हुआ था, भारतीय पुलिस सेवा के उन उत्कृष्ट अधिकारियों में से एक हैं जिन्होंने अपने कर्म और निष्ठा से न केवल असम पुलिस की छवि को सुदृढ़ किया, बल्कि युवाओं के लिए एक प्रेरणा भी बने। श्री महंत ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा असम में प्राप्त की और उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित रामजस कॉलेज में प्रवेश लिया। यह वही स्थान था जहाँ उनके व्यक्तित्व का शैक्षणिक और वैचारिक विकास हुआ। वे एक संवेदनशील विचारक, कुशल नेतृत्वकर्ता और अनुशासनप्रिय अधिकारी के रूप में विकसित हुए। उनकी असम पुलिस सेवा की यात्रा कई महत्वपूर्ण पड़ावों से गुज़री। उन्होंने हमेशा अपने कर्तव्यों को समाज, राज्य और संविधान के प्रति पूर्ण निष्ठा के साथ निभाया। अपनी कड़ी मेहनत, सत्यनिष्ठा और निष्पक्षता के बल पर वे असम पुलिस के महानिदेशक (DGP) के पद तक पहुँचे। यह न केवल उनके व्यक्तिगत परिश्रम का परिणाम था, बल्कि यह राज्य की कानून-व्यवस्था और नागरिक सुरक्षा के प्रति उनकी गह...

"संयुक्त परिवार: परंपरा की ओट में छिपे अन्याय"

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संयुक्त परिवार की काली परछाई: एक पुनर्विचार संयुक्त परिवारों को भारतीय समाज की रीढ़ कहा गया है। परंतु जब हम इसके अंधेरे पहलुओं की ओर नज़र डालते हैं, तो एक कड़वी सच्चाई सामने आती है—सदियों से स्त्रियों के अस्तित्व, स्वतंत्रता और सम्मान को इसी व्यवस्था में सबसे अधिक कुचला गया है। समाज के अनेक चेहरे इस ढांचे के भीतर ढँके रहते हैं, जो बाहर से दिखते हैं “परंपरा” के नाम पर, पर भीतर से होते हैं स्त्रीविरोधी और अमानवीय। संयुक्त परिवार में पनपने वाली पुरुष-प्रधान मानसिकता स्त्री को केवल एक सेविका या भोग की वस्तु मानती है। कई बार ऐसे उदाहरण भी सामने आते हैं, जहाँ स्त्रियों को पति के अलावा अन्य पुरुषों से भी संबंध बनाने के लिए मानसिक या सामाजिक रूप से मजबूर किया जाता है। इस तरह की अमानवीयता को परिवार के “संस्कार” और “मर्यादा” के नाम पर छुपा दिया जाता है। जात-पात की गहरी जड़ें भी इसी संयुक्त ढांचे में पनपती हैं। बचपन से ही बच्चों को सिखाया जाता है कि कौन ऊँचा है, कौन नीचा, और किससे कैसा व्यवहार करना चाहिए। यही मानसिकता बड़े होकर समाज में भेदभाव और हिंसा का कारण बनती है। इतिहास में झाँकें तो रामायण...

"विनता और कद्रु: संयुक्त और एकल परिवार की सांस्कृतिक व्याख्या"

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निबंध: संयुक्त परिवार बनाम एकल परिवार — कद्रु और विनता की दृष्टि से प्राचीन भारतीय पौराणिक कथाएँ आज भी हमारे जीवन के अनेक पहलुओं को गहराई से प्रतिबिंबित करती हैं। इन्हीं में से दो प्रमुख स्त्रियाँ थीं — कद्रु और विनता। कद्रु, नागों की माता, उन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो संयुक्त परिवार की संरचना को महत्व देती हैं। वहीं, विनता, गरुड़ और अरुण जैसे तेजस्वी पुत्रों की माता, एकल परिवार की शक्ति और स्वतंत्रता की प्रतीक हैं। कद्रु ने अपने पति कश्यप ऋषि से सहस्त्र नाग पुत्रों का वरदान माँगा, जिससे वह एक विस्तृत और विशाल संयुक्त परिवार की अधिष्ठात्री बनीं। उन्होंने सदैव परिवार को जोड़ कर रखने का विचार रखा, परंतु अत्यधिक वासना और लालच ने उन्हें दुष्ट बना दिया। उनकी नकारात्मक प्रवृत्तियों के कारण उनके पुत्र — शेषनाग और वासुकी तक उनसे विमुख हो गए। यही दर्शाता है कि जब परिवार में वासनात्मक स्वार्थ और लालच आ जाता है, तो वह परिवार बंधन बनकर रह जाता है, प्रेम का स्थान अधिकार और ईर्ष्या ले लेती है। वहीं दूसरी ओर, विनता ने अपने पति से केवल दो, परंतु शक्तिशाली और धर्मनिष्ठ पुत्रों क...

"रसोई की क्रांति: जटायु भक्त का बाग़ी भोज"

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शीर्षक: "जटायु भक्त का बाग़ी भोज" छप्पन गांवों की रसोइयाँ एक दिन गूंज उठीं — पर स्वाद से नहीं, दहशत से। हर थाली में परोसे गए भोजन में धीरे-धीरे ज़हर घुलने लगा था — धीमा ज़हर, जो न पेट को मारता था, न दिल को... पर आत्मा को कुंद कर देता था। यह कहानी है बाग़ी 'जटायु भक्त' की — एक ऐसा किसान, एक ऐसा रसोइया, और एक ऐसा संत, जिसे भगवान जटायु के दर्शन हुए थे और जिसने डायबिटीज़ की बीमारी को भी अपनी तलवार बना लिया। --- अफसाना छप्पन गांवों में अजीब सी बात फैलने लगी थी – बच्चों के चेहरे मुरझा रहे थे, बूढ़ों की यादें गुम हो रही थीं, और जवानों को अब खेत से ज़्यादा मोबाइल का स्वाद अच्छा लगने लगा था। बाग़ी को शक हुआ। वह खुद डायबिटीज़ का शिकार था, लेकिन उसने कभी चीनी का मोह नहीं किया – वह चखते ही पहचान लेता था कि खाने में क्या प्राकृतिक है, और क्या जहरीला। एक दिन वह छुपकर सरकारी गाड़ियों का पीछा करते हुए एक गुप्त गोदाम तक जा पहुंचा — जहां से "पोषाहार", "खाद्य सुरक्षा", "मिड-डे मील" जैसी योजनाओं के नाम पर जहरीली प्रोसेस्ड चीजें गांवों में भेजी जा...

"स्वतंत्रता की कीमत: स्त्री और समाज की सोच"

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निबंध का शीर्षक: "स्वतंत्र स्त्री और समाज की संकुचित दृष्टि" --- समाज में जब कोई स्त्री आत्मनिर्भर बनने की चाह रखती है, अपने सपनों के लिए संघर्ष करती है और अपने जीवन के फैसले खुद लेने लगती है — तो कई बार उसे अपमानजनक शब्दों का सामना करना पड़ता है। 'गोल्ड डिगर', 'लालची', 'स्वार्थी' जैसे शब्द उस पर थोप दिए जाते हैं, जैसे एक स्वतंत्र सोच रखने वाली स्त्री, पुरुषों की दृष्टि में मानवीय नहीं, बल्कि एक वस्तु भर हो। विडम्बना यह है कि वही पुरुष, जो स्त्रियों को सिर्फ उनके रूप, शरीर या व्यवहार से आंकते हैं, उन्हें 'शौकीन' कहकर समाज अक्सर अनदेखा कर देता है। लेकिन जब कोई स्त्री अपनी मेहनत से अपनी ज़रूरतें पूरी करना चाहती है, आत्मसम्मान से जीना चाहती है, तो उसे चरित्रहीन या लालची कहा जाता है। क्या यह दोहरा मापदंड नहीं? एक महिला को अपने जीवन में सुविधा चाहिए, सम्मान चाहिए, और यह उसका हक़ है। यदि कोई पुरुष सोचता है कि महिला को "रोटी, कपड़ा और मकान" देकर वह उस पर अधिकार जमा सकता है, तो यह सोच सामंती और अपमानजनक है। जब एक पुरुष की माँ या ब...

"धर्म की चौकी पर: जटायु भक्त अफसर"

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अफसाना शीर्षक: "जटायु भक्त: अफसर सुनील कुमार वर्मा की अग्निपरीक्षा" --- अफसाना: बिहार की तपती दोपहर में धूल उड़ाती सड़कों पर एक जीप धीरे-धीरे चल रही थी। उस जीप में बैठा व्यक्ति कोई आम पुलिस अफसर नहीं था — वह था सुनील कुमार वर्मा, एक जटायु भक्त, एक आदर्शवादी प्रहरी, जिसने कसम खाई थी — “ना रिश्वत लूंगा, ना भ्रष्टाचार सहूंगा।” उनका ट्रांसफर बिहार के एक छोटे मगर अराजक जिले में हुआ था। जनता की आंखों में पुलिस के लिए नफरत भरी थी, और अफसर वर्मा के लिए यह एक युद्धभूमि थी, न कि कोई पोस्टिंग। पर सुनील कुमार वर्मा हार मानने वालों में नहीं था। उसने अपने गुरु भगवान जटायु से सीखा था — “धर्म के लिए अकेले भी लड़ना पड़े, तो लड़ो।" --- सीक्रेट मिशन: शहर में नशे का एक बड़ा गिरोह पनप रहा था, जिसका समर्थन कुछ प्रभावशाली नेता और पुलिस अफसर कर रहे थे। सुनील कुमार ने अकेले ही सबूत इकट्ठे करने शुरू कर दिए। भेष बदल कर वह रातों में छापेमारी करता, दिन में केस फाइलों में डूबा रहता। एक रात, उसने एक बड़ा स्टिंग ऑपरेशन किया। पूरे शहर में अफवाह फैल गई — “पुलिस में कोई जटायु भक्त आया है जो डर...

"दूसरा आसमान: जटायु भक्त शर्मिला की उड़ान"

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शीर्षक: "जटायु भक्त शर्मिला का दूसरा आसमान" शर्मिला... एक ऐसा नाम, जो जीवन की पहली आँधी में बिखर कर भी अपनी पहचान न भूली। वह जटायु की भक्त थी — उस पवित्र पक्षीराज की, जो धर्म के लिए प्राण दे गया, पर अपने कर्तव्य से पीछे न हटा। वही जटायु उसकी साँसों में बसते थे, वही उसके आस्था के पंख थे। असम के एक छोटे से गांव की वह एकलौती बेटी थी। उसकी पहली शादी, प्रेम से नहीं, बल्कि सामाजिक दबाव से हुई थी। वह रिश्ता किसी अलिखित यातना की तरह था – जिसमें न समझदारी थी, न इज्ज़त। दहेज की चुभती माँगें, भावनात्मक अपमान और चुप्पी की चादर ओढ़े शर्मिला ने अंततः वह साहस जुटाया, जो जटायु ने रावण से लड़ते हुए दिखाया था — उसने अपने पहले विवाह से मुक्ति पा ली। समाज ने उसे देखा… तलाकशुदा लड़की की नजरों से — कुछ ताने, कुछ करुणा, कुछ व्यंग्य। पर शर्मिला ने इन सब से ऊपर उड़ना सीखा था। उसी दौर में, जब जीवन में पुनः पतझड़ सा सूनापन छा गया था, एक ताज़ी हवा ताजिकिस्तान से चली। एक रिश्ते का प्रस्ताव आया। वह पुरुष, जिसका नाम 'फरहाद' था — रूप में सुन्दर, कर्म में सज्जन, और विचारों में आधुनिक था। ...

"आत्मसम्मान की चुप क्रांति"

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शीर्षक: "जैसे समझते हैं वैसा ही रहने दो: आत्मसम्मान की एक चुप क्रांति" इस संसार में जब भी कोई स्त्री या पुरुष अपनी पहचान, स्वतंत्रता, और आत्मबल के लिए खड़ा होता है, तो समाज की आँखें तुरंत उसे संदेह की दृष्टि से देखने लगती हैं। विशेष रूप से महिलाओं के लिए यह संघर्ष कई गुना बढ़ जाता है। यदि कोई महिला अपने जीवन के निर्णय खुद लेने लगे, अपने सपनों के पीछे दौड़ने लगे या अपने अधिकारों के लिए खड़ी हो जाए, तो उसे "लालची", "मतलबी", या "बेशर्म" जैसे शब्दों का सामना करना पड़ता है। लेकिन यह आवश्यक नहीं कि हर आलोचना का उत्तर दिया जाए। यह ज़रूरी नहीं कि हर सवाल का जवाब दिया जाए या हर आरोप को मिटाने के लिए सफाई दी जाए। अपने आत्म-सम्मान को बार-बार सफाई देकर तोलना, आत्मबल को भीतर से कमज़ोर कर देता है। जो लोग पहले से ही पूर्वग्रह से ग्रसित हैं, उन्हें आपकी सच्चाई नहीं दिखाई देती, बल्कि वे केवल वही देखते हैं, जो वे देखना चाहते हैं। ऐसे में सबसे बड़ा प्रतिकार है — चुप रहकर, गरिमा के साथ आगे बढ़ना। उन्हें जैसे समझना है, वैसे ही रहने देना चाहिए। आपका जीवन आ...

"तीर की नोक पर असम का अभिमान: जयंत तालुकदार"

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शीर्षक: "जयंत तालुकदार: भारतीय तीरंदाजी का उगता सितारा" जयंत तालुकदार भारतीय खेल जगत का एक ऐसा नाम है, जिसने अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन और कड़ी मेहनत के बल पर देश को अंतरराष्ट्रीय मंच पर गौरवान्वित किया है। वे विशेष रूप से तीरंदाजी (Archery) के क्षेत्र में प्रसिद्ध हैं और भारत के अग्रणी तीरंदाजों में गिने जाते हैं। उनका जन्म 2 मार्च 1986 को असम राज्य के गुवाहाटी में हुआ था। प्रारंभिक जीवन और प्रेरणा जयंत तालुकदार का बचपन असम के सांस्कृतिक वातावरण में बीता। उन्होंने बहुत कम उम्र में ही तीरंदाजी में रुचि लेना शुरू कर दिया था। उनके भीतर की लगन, अभ्यास और संकल्प ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। पारंपरिक खेलों से इतर तीरंदाजी जैसा चुनौतीपूर्ण क्षेत्र चुनना, उनके साहस और दृष्टिकोण को दर्शाता है। अंतरराष्ट्रीय पहचान जयंत तालुकदार ने 2006 में भारतीय तीरंदाजी टीम के सदस्य के रूप में अपनी पहचान बनाई। उसी वर्ष, उन्होंने वर्ल्ड कप में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया। वे 2006 में अंतरराष्ट्रीय तीरंदाजी महासंघ की रैंकिंग में विश्व के शीर्ष 10 खिलाड़ियों में शामि...

"बोडो अस्मिता का प्रहरी: संसुमा ब्विसमुथिार्य"

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संसुमा खुङ्गगुर ब्विसमुथिार्य: बोडो अस्मिता की आवाज़ भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में कई जनजातियाँ और भाषाएँ ऐसी हैं, जिन्हें राष्ट्रीय मंच पर अपनी पहचान और अधिकारों के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। इन संघर्षों की अगुवाई करने वाले कुछ अद्वितीय नेताओं में से एक हैं संसुमा खुङ्गगुर ब्विसमुथिार्य (Sansuma Khunggur Bwiswmuthiary)। वे बोडो समुदाय के एक सशक्त प्रतिनिधि, निर्भीक नेता और बोडो भाषायी अस्मिता के रक्षक माने जाते हैं। प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि संसुमा ब्विसमुथिार्य का जन्म 1960 में असम के कोकराझार ज़िले में हुआ था, जो बोडोलैंड क्षेत्र का सांस्कृतिक और राजनीतिक केंद्र है। वे बोडो समुदाय से संबंधित हैं, जो भारत की एक प्रमुख आदिवासी जनजाति है और जिनकी भाषा और संस्कृति को दशकों से पहचान की तलाश रही है। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत बोडोलैंड के स्वायत्तता आंदोलन से की थी। इस आंदोलन का उद्देश्य बोडो लोगों को उनकी सांस्कृतिक, भाषाई और राजनीतिक पहचान दिलाना था। राजनीतिक जीवन संसुमा ब्विसमुथिार्य 1998 से 2009 तक चार बार लोकसभा सांसद रहे। उन्होंने कोकराझार लोकसभा क्षेत्र का ...

"इंसानियत से परे नहीं है औरत की पहचान"

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निबंध का शीर्षक: "औरत: रोटी-कपड़े से परे एक इंसान की पहचान" --- समाज में एक आम धारणा रही है कि यदि एक स्त्री को रोटी, कपड़ा और मकान मिल जाए, तो उसे और कुछ नहीं चाहिए। यह सोच एक गहरी मानसिक ग़ुलामी का परिचायक है, जिसमें औरत को केवल जीवित रहने योग्य सुविधाएँ देकर उसकी आत्मा, उसके स्वाभिमान, उसके अधिकार और उसकी इंसानियत को नजरअंदाज कर दिया जाता है। औरत कोई वस्तु नहीं है जिसे बस छत के नीचे रखकर यह समझ लिया जाए कि उसके जीवन की सारी ज़रूरतें पूरी हो गईं। वह भी एक इंसान है, जिसके भीतर भावनाएँ हैं, सपने हैं, सम्मान की आकांक्षा है। एक पुरुष जब समाज में अपनी पहचान बनाता है, तो वह केवल पेट भरने के लिए नहीं जीता — वह इज्जत, आत्मसम्मान और स्वायत्तता की चाह रखता है। तो फिर यही अधिकार एक स्त्री से क्यों छीन लिया जाता है? जब कोई कहता है कि "उस औरत को तो सबकुछ मिल गया — खाना, पहनने को कपड़ा और रहने को घर," तो यह भूल जाता है कि यही सबकुछ तो एक भिखारी को भी मिल सकता है। स्त्री को इन चीज़ों के साथ-साथ एक गरिमामय स्थान भी चाहिए, जहाँ उसकी बात सुनी जाए, उसकी भावनाओं का सम्मान...

“इच्छाओं की अपराधी नहीं, स्वतंत्रता की प्रतिमा है वह”

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शीर्षक: “वो औरत जो सिर्फ जीना चाहती थी” औरत—जिसे समाज देवी कहता है, लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा कहता है—उसी समाज में वह अपने छोटे-छोटे सपनों के लिए भी आलोचना की पात्र बन जाती है। एक पुरुष अगर सफलता और विलासिता की चाह रखे तो उसे ‘प्रेरणास्रोत’ माना जाता है, लेकिन जब एक स्त्री बेहतर जीवन, सुंदर वस्त्र, कीमती गहनों और सुख-सुविधाओं की कामना करती है तो उसे ‘लालची’, ‘स्वार्थी’ या ‘गोल्ड डीगर’ जैसे शब्दों से अपमानित किया जाता है। क्या स्त्री को अपने जीवन में विलासिता या महंगे स्वाद का हक नहीं? क्या वह सिर्फ त्याग, सहनशीलता और मर्यादा की प्रतिमूर्ति बनकर जीने के लिए बनी है? यह विडंबना तब और गहरी हो जाती है जब समाज उसी स्त्री को छोटी-छोटी खुशियों से भी वंचित कर देता है। जैसे ही वह मासिक धर्म के समय खुद को सामान्य महसूस करने की कोशिश करती है, उसकी देह को ‘अपवित्र’ घोषित कर दिया जाता है। उसे पूजा से दूर कर दिया जाता है, रसोई में घुसने से रोका जाता है, और यहां तक कि उसे अपने ही घर में अछूत बना दिया जाता है। इन सबके बीच वह स्त्री जो बस जीना चाहती थी—बिना किसी विशेषाधिकार के, बिना किसी झग...

जटायु का महत्व

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अंतिम अध्याय: जटायु का महत्व – धर्म, निष्ठा और बलिदान की अमर प्रतिमा रामायण के विराट पृष्ठों में अनेक पात्र आते हैं और चले जाते हैं, पर कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपने कर्म, चरित्र और संकल्प से अमरता प्राप्त कर लेते हैं। जटायु उन्हीं विलक्षण पात्रों में से एक हैं, जिनका महत्व केवल एक पंखों वाले योद्धा के रूप में नहीं, बल्कि धर्म की आत्मा और सत्य के प्रहरी के रूप में आज भी जीवित है। 🕊 धर्म का सजीव स्वरूप जटायु का चरित्र हमें यह सिखाता है कि धर्म केवल पूजा-पाठ या उपदेश में नहीं, बल्कि कर्तव्य के पालन में निहित है। उन्होंने सीता माता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी, जबकि वे वृद्ध और दुर्बल थे। यह कर्म, यह प्रयास – यह धर्म है। 🙏 निष्ठा की चरम सीमा जटायु श्रीराम के भक्त नहीं थे, वे तो शिवभक्त पक्षी थे। पर जब समय आया, तो उन्होंने धर्म की पहचान श्रीराम के रूप में की और बिना किसी संकोच के अधर्म के विरुद्ध खड़े हो गए। यह निष्ठा किसी वचनबद्धता से नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार से उत्पन्न हुई थी। ⚔️ बलिदान का आदर्श जटायु ने कोई सेना नहीं चलाई, कोई राजपद नहीं धारण किया, पर उन्होंने ...

जटायु का अंतिम संस्कार

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"अग्नि-संस्कार: जटायु को श्रीराम की श्रद्धांजलि" पाँचवां अध्याय: भगवान राम द्वारा जटायु का अंतिम संस्कार – धर्म की मर्यादा का अनुपम आदर्श जटायु का बलिदान केवल युद्ध का प्रसंग नहीं था, बल्कि यह धर्म, निष्ठा और वीरता की चरम सीमा थी। रामायण में जब जटायु ने रावण से युद्ध किया, तो वह जानता था कि वह वृद्ध है, फिर भी उसने धर्म की रक्षा हेतु प्राणों की आहुति देने में तनिक भी संकोच नहीं किया। रावण द्वारा घायल किए जाने के पश्चात जब भगवान श्रीराम और लक्ष्मण सीता की खोज करते हुए वहां पहुँचे, तब उन्होंने जटायु को मरणासन्न अवस्था में देखा। जटायु ने अपने अंतिम श्वासों में रावण की दिशा बताकर सीता माता के हरण की पुष्टि की और राम को एक नई राह दिखाई। भगवान राम का जटायु के प्रति प्रेम और श्रद्धा देखकर संपूर्ण सृष्टि भावविभोर हो उठी। श्रीराम ने जटायु को पितृतुल्य मानकर स्वयं उसका अंतिम संस्कार किया। उन्होंने उस योद्धा पक्षी को वह सम्मान दिया, जो सामान्यतः एक पिता को ही प्राप्त होता है। यह दृश्य केवल एक अंतिम संस्कार नहीं था — यह धर्म की मर्यादा, जाति और रूप के भेद से ऊपर उठकर कर्म की ...

राम के साथ संबंध

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चतुर्थ अध्याय: जटायु का अन्तिम संस्कार – श्रीराम की करुणा और कर्तव्यबोध रामायण की कथा में अनेक प्रसंग हैं जो मानवीय मूल्यों, त्याग और धर्म के गहरे संदेश देते हैं। ऐसा ही एक मार्मिक और महान प्रसंग है – जटायु का अन्तिम संस्कार। यह न केवल एक पक्षिराज की वीरता का सम्मान है, बल्कि भगवान राम के भीतर बसे गहन करुणा और कर्तव्यबोध की उज्ज्वल झलक भी है। जब जटायु ने रावण से युद्ध किया, तो उन्होंने यह जानते हुए भी सीता की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दी कि उनका प्रतिद्वंदी अजेय और बलशाली है। उनके घायल होने के बाद, वे सीता का अपहरण होते हुए देख न सके और मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। कुछ समय बाद जब भगवान राम लक्ष्मण के साथ सीता को खोजते हुए उस वनप्रदेश में पहुँचे, तो उन्होंने घायल जटायु को देखा। जटायु ने राम को बताया कि रावण ने सीता का अपहरण किया है और दक्षिण दिशा की ओर गया है। इतना कहकर वह महान पक्षीराज अंतिम साँसें लेने लगे। यह दृश्य अत्यंत करुणाजनक था – एक वान्यपक्षी ने सीता माता की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे। श्रीराम ने उस समय जिस प्रकार जटायु के अंतिम संस्कार का उ...

सीता की रक्षा

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तृतीय अध्याय: सीताहरण में जटायु का धर्मयुद्ध रामायण की कथा केवल देवताओं की महिमा का वर्णन नहीं करती, बल्कि उसमें ऐसे महान प्राणियों का योगदान भी समाहित है जो धर्म और नारी मर्यादा की रक्षा के लिए अपने प्राणों की भी आहुति देने को तत्पर रहते हैं। ऐसे ही एक महान योद्धा थे – जटायु। यह अध्याय उस क्षण का विवरण करता है जब धर्म संकट में था, और एक पक्षिराज ने अधर्म के विरुद्ध आकाश में युद्ध किया। जब रावण सीता का हरण कर उन्हें अपने पुष्पक विमान में लेकर लंका की ओर जा रहा था, तब मार्ग में जटायु ने उसे रोका। उन्होंने जान लिया कि यह कार्य अधर्म का है और एक राक्षस द्वारा एक अबला स्त्री का बलात् अपहरण किया जा रहा है। यद्यपि जटायु वृद्ध थे, किंतु उन्होंने अपने जीवन की परवाह किए बिना, सीता की रक्षा हेतु युद्ध का निर्णय लिया। इस युद्ध का चित्रण केवल भौतिक युद्ध नहीं था, वह धर्म और अधर्म के बीच एक निर्णायक मुठभेड़ थी। जटायु ने रावण से कहा – "यदि तू मर्यादा का उल्लंघन करेगा, तो मैं भले ही वृद्ध हूँ, पर रघुकुल की मर्यादा की रक्षा के लिए तुझे रोके बिना नहीं रुकूँगा।" जटायु ने रावण के वि...

वीर जटायु को प्रणाम 🙏🚩🪴☸️

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हाँ, जटायु के विषय पर एक पुस्तक लिखी जा सकती है। जटायु, रामायण के एक महत्वपूर्ण पात्र हैं, जो अपनी वीरता और भगवान राम के प्रति अटूट निष्ठा के लिए जाने जाते हैं। उनकी कहानी, जिसमें उनका रावण से सीता को बचाने का प्रयास और राम द्वारा उनका अंतिम संस्कार किया जाना शामिल है, एक प्रेरणादायक कथा है।  जटायु पर पुस्तक लिखने के कुछ संभावित पहलू: जटायु का चरित्र: जटायु की बहादुरी, धर्म के प्रति समर्पण, और राम के प्रति निष्ठा को उजागर किया जा सकता है।  रावण से युद्ध: रावण के साथ जटायु की लड़ाई का विस्तृत वर्णन किया जा सकता है, जिसमें उनकी वीरता और बलिदान को दर्शाया जाए।  सीता की रक्षा: जटायु का सीता को बचाने का प्रयास और रावण द्वारा घायल होने की घटना को विस्तार से बताया जा सकता है।  राम के साथ संबंध: राम और जटायु के बीच के संबंध, जिसमें जटायु का राम के प्रति सम्मान और निष्ठा शामिल है, को भी दर्शाया जा सकता है।  जटायु का अंतिम संस्कार: राम द्वारा जटायु का अंतिम संस्कार किए जाने की घटना को भी पुस्तक में शामिल किया जा सकता है।  जटायु का महत्व: जटायु के चरित्र क...

रावण से युद्ध

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द्वितीय अध्याय: रावण से युद्ध – वीरता का अमर प्रमाण रामायण की गौरवशाली कथा में कई चरित्र ऐसे हैं जो अपने त्याग, पराक्रम और धर्मनिष्ठा के कारण अमर हो गए। उनमें से एक है जटायु — वह परमवीर पक्षिराज, जिसने अधर्म के विरुद्ध अकेले युद्ध करने का साहस दिखाया। यह अध्याय उस युद्ध की गाथा है, जिसमें जटायु ने रावण जैसे बलशाली राक्षस का मार्ग रोका, केवल इसलिए कि सीता की रक्षा हो सके और धर्म की मर्यादा बनी रहे। जब रावण सीता का हरण कर आकाश मार्ग से लंका की ओर ले जा रहा था, तभी दंडकारण्य के वनों में निवास करने वाले वृद्ध जटायु की दृष्टि उन पर पड़ी। उन्होंने बिना किसी संकोच के रावण को ललकारा। यह जानते हुए भी कि वह आयु में वृद्ध हैं और रावण बल, छल और अस्त्रों में प्रवीण है, जटायु पीछे नहीं हटे। उन्होंने रावण से कहा — "यदि तू वास्तव में वीर है, तो स्त्री का अपहरण क्यों करता है? धर्म का मार्ग छोड़ दे और इसे यहीं छोड़ जा, नहीं तो मुझे तुझे रोकना ही होगा।" यह घोषणा धर्म की रक्षा की घोषणा थी। जटायु ने रावण पर आक्रमण किया — उनके पंजों से, उनके पंखों से, अपने पूरे बल से। कई बार उन्होंने र...

जटायु का चरित्र

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📖 अध्याय 1: जटायु का जन्म और परिचय – धर्म का पंखधारी प्रहरी भारत की पवित्र धरती पर जहाँ देव, ऋषि और वीर योद्धाओं ने अवतरण किया, वहीं एक ऐसा अमर पंखधारी पात्र भी हुआ जिसने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। वह थे – पक्षीराज जटायु। --- 🪶 जन्म और वंश परंपरा जटायु का जन्म एक दिव्य पक्षी वंश में हुआ। वे अरुण के पुत्र थे। अरुण कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे — वे भगवान सूर्यदेव के सारथी थे, और गरुड़ के बड़े भाई भी। इस प्रकार, जटायु गरुड़ के भतीजे हुए। उनकी माता का नाम "श्येनी" था, न कि शकुनि — जैसा कि कई बाद के स्रोतों में भूलवश लिखा गया। 👉 वंश क्रम: कश्यप ऋषि + विनता → गरुड़ व अरुण अरुण + श्येनी → जटायु और संपाती जटायु के बड़े भाई का नाम संपाती था, जो भी एक शक्तिशाली पंखधारी योद्धा थे। --- 👑 दशरथ के मित्र और राम के रक्षक जटायु केवल पक्षी नहीं थे — वे राजा दशरथ के घनिष्ठ मित्र भी थे। इसी मित्रता के नाते उन्होंने वनवास काल में राम, सीता और लक्ष्मण की सहायता की। --- 🌿 धर्म के प्रहरी जटायु दंडकारण्य वन के रक्षक थे। वे केवल उड़ने वाले जीव नहीं, बल्कि एक सजग...

जटायु कृत श्रीराम स्तोत्र

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                            जटायुवाच अगणितगुणमप्रमेयमाद्यं सकलजगत्स्थितिसंयमादिहेतुम्। उपरमपरमं परात्मभूतं सततमहं प्रणतोऽस्मि रामचन्द्रम्।।१।। निरवधिसुखमिन्दिराकटाक्षं क्षपितसुरेन्द्रचतुर्मुखादिदुःखम्। नरवरमनिशं नतोऽस्मि रामं वरदमहं वरचापबाणहस्तम्।।२।। त्रिभुवनकमनीयरूपमीड्यं रविशतभासुरमीहितप्रदानम्। शरणदमनिशं सुरागमूले कृतनिलयं रघुनन्दनं प्रपद्ये।।३।। भवविपिनदवाग्निनामधेयं भवमुखदैवतदैवतं दयालुम्। दनुजपतिसहस्त्रकोटिनाशं रवितनयासदृशं हरिं प्रपद्ये।।४।। अविरतभवभावनातिदूरं भववि मुखैर्मुनिभिः सदैव दृश्यम्। भवजलधिसुतारणाङ्घ्रिपोतं शरणमहं रघुनन्दनं प्रपद्ये।।५।। गिरिशगिरिसुतामनोनिवासं गिरिवरधारिणमीहिताभिरामम्।। सुरवरदनुजेन्द्रसेविताङ्घ्रिं सुरवरदं रघुनायकं प्रपद्ये।।६।। परधनपरदारवर्जितानां परगुणभूतिषु तुष्टमानसानाम्।          परहितनिरतात्मनां सुसेव्यं रघुवरमम्बुजलोचनं प्रपद्ये।।७।। स्मितरुचिरविकासिताननाब्जमतिसुलभं सुरराजनीलनीलम्। सितजलरुहचारुनेत्रशोभं रघुपतिमीशगुरोर्गुरुं प्...

"अधूरा प्रेम और पूर्ण जीवन: भावनाओं का द्वंद्व"

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अधूरी कहानियों का सम्मोहन: जीवन और साहित्य का द्वंद्व मानव हृदय की एक विचित्र प्रवृत्ति है — वह जीवन में पूर्णता चाहता है, लेकिन साहित्य में अधूरापन उसे अधिक आकर्षित करता है। वास्तविक जीवन में हम जिससे प्रेम करते हैं, उसके साथ पूरी ज़िंदगी बिताने का सपना देखते हैं। हम स्थायित्व, सुरक्षा और प्रतिबद्धता (commitment) को सबसे बड़ा प्रेम मानते हैं। किन्तु जब हम साहित्य, गीत, फिल्मों या लोककथाओं की ओर रुख करते हैं, तो वहीं प्रेम कहानियाँ सबसे अधिक हृदयस्पर्शी लगती हैं जो कभी पूरी नहीं हो सकीं — राधा और कृष्ण, लैला और मजनूं, शीरीं-फरहाद, देवदास और पारो। इन अधूरी कहानियों का आकर्षण इस बात में नहीं है कि वे पूरी हुईं, बल्कि इस बात में है कि वे अधूरी रहकर भी अमर हो गईं। वे कहानियाँ जिनमें मिलन नहीं था, लेकिन प्रेम की तीव्रता, त्याग, पीड़ा और विरह का रस इतना गाढ़ा था कि वे युगों तक स्मृतियों में जीवित रहीं। राधा और कृष्ण का प्रेम कभी विवाह में परिणत नहीं हुआ, परंतु आज भी वह ‘दिव्य प्रेम’ का प्रतीक माना जाता है। लैला-मजनूं और देवदास-पारो की कथाएँ दिल को चीरती हैं, शायद इसलिए क्योंकि अध...

"स्वतंत्रता की सज़ा: नारी, धर्म और दोहरे मापदंड"

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निबंध शीर्षक: "नारी की पहचान: धर्म, चरित्र और क्रांति के आईने में" --- भारतीय समाज में नारी की भूमिका सदियों से एक जटिल विमर्श का विषय रही है। जब एक मुस्लिम महिला अपने जीवन की सीमाओं को तोड़कर बाहर निकलती है, अपनी पहचान बनाती है, तो समाज उसे क्रांतिकारी कहता है—क्योंकि वह एक ऐसी दीवार को पार करती है जिसे कभी न पार करने की सीख दी गई थी। उसकी शिक्षा, आत्मनिर्भरता और साहस को सराहा जाता है। वह एक प्रेरणा बनती है। परंतु, यही मंज़र जब एक हिंदू महिला के संदर्भ में आता है, तो समाज की दृष्टि बदल जाती है। वह अपने अधिकारों के लिए बोलती है, बाहर निकलती है, सोचती है, सवाल करती है—तो उसे 'चरित्रहीन', 'कुलटा', और 'धर्म-भ्रष्ट' जैसे अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया जाता है। इस दोहरे मापदंड ने नारी स्वतंत्रता के संघर्ष को सांस्कृतिक कैद में जकड़ दिया है। हिंदू समाज, जो वेदों और उपनिषदों की भूमि है, जहाँ गार्गी, मैत्रेयी और दुर्गा जैसी नारियों ने ज्ञान और शक्ति के स्तम्भ खड़े किए, आज उसी समाज में एक स्त्री का घर से बाहर निकलना ही ‘अवसरवादी’ और ‘निंदनीय’ माना ज...

"विचार की नई दिशा"

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📜 पत्रिका शीर्षक: "सोच के सांचे" --- मुखपृष्ठ वाक्य: "बदलाव सोच में नहीं, सोचने के तरीकों में चाहिए।" --- प्रकाशकीय इस विशेषांक में हम उस सूक्ष्मतम सत्य को समझने का प्रयास करेंगे जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है—कि मनुष्य की सोच में नहीं, बल्कि सोचने के तरीकों में बदलाव की ज़रूरत है। जब हम ज़िन्दगी की हर घटना, परिस्थिति, और संबंध को एक ही तरह से देखने लगते हैं, तो हमारी सोच जड़ हो जाती है। यह अंक समर्पित है उस लय को पुनः जागृत करने के लिए, जिससे विचारों की नदियाँ फिर से बहने लगें। --- मुख्य आलेख: "सोच नहीं, सोचने का तरीका बदलो" ✒️ लेखिका: थैरोसिरा स्वतंत्रिका हर ज्ञानी, हर उपदेशक, हर परिवर्तनवादी एक ही बात दोहराता है: "सोच बदलो"। पर क्या हमने कभी सोचा कि सोच को कैसे बदला जाए? क्या सोच किसी दीवार की तरह है जिसे गिराया जा सकता है, या एक वृक्ष की तरह जिसे काटा जा सकता है? वास्तव में, सोच कोई स्थिर वस्तु नहीं, बल्कि एक प्रक्रिया है। जैसे-जैसे हम चीज़ों को देखने का ढंग बदलते हैं, वैसे-वैसे हमारी सोच स्वतः बदलती है। उदाहरण के लिए, अगर क...

"मौन का सिनेमाकार: आगुंग हाप्साह"

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🌟 निबंध शीर्षक: "आगुंग हाप्साह: विचारशील डिजिटल क्रांतिकारी" 🌟 (जन्म: 11 मई 1999) --- ✍️ भूमिका आज जब सोशल मीडिया पर शोर अधिक और मौन की गूंज कम होती जा रही है, उस समय एक युवा इंडोनेशियाई क्रिएटर ने इंटरनेट की दुनिया को यह सिखाया कि गहराई, गुणवत्ता और आत्म-अभिव्यक्ति ही डिजिटल माध्यम की सच्ची शक्ति है। वह नाम है — आगुंग हाप्साह (Agung Hapsah)। --- 🎥 कौन हैं आगुंग हाप्साह? आगुंग हाप्साह का जन्म 11 मई 1999 को इंडोनेशिया में हुआ था। वे एक यूट्यूबर, वीडियो संपादक और रचनात्मक निर्देशक हैं, जिन्होंने अपने कौशल और संवेदनशील दृष्टिकोण से लाखों दर्शकों को आकर्षित किया। वे केवल मनोरंजन नहीं करते — वे सोचने पर मजबूर करते हैं। उनका यूट्यूब चैनल उनके सोच की गहराई, तकनीकी निपुणता और रचनात्मकता का जीता-जागता प्रमाण है। --- 🎬 शैली और विशेषताएँ आगुंग हाप्साह के वीडियोज़ को देखकर यह महसूस होता है कि हर फ्रेम सोच-समझकर रचा गया है। वे रोशनी, रंग, संगीत और कैमरा मूवमेंट के ज़रिए भावनाओं को पिरोते हैं। उनके विषय निजी होते हैं, पर उनमें हर युवा अपनी झलक पाता है। वे अपनी मौन भाषा, आत्...

"हुदहुद देवी: प्रेम और संवाद की उड़ान"

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سرلیک: "هود دیوی: راز، مینه او د وزرونو غږ" د یوې ښکلې او پراسرار مرغۍ نوم چې په لرغوني عربي-ایراني فولکلور او اسلامي دودونو کې بیان شوی دی - هدهد. دا نه یوازې مرغۍ ده، بلکې یو الهی رسول هم دی، د مینې او حکمت سمبول دی، او په ډیری افسانو کې یوه ښځینه تمثیلي شخصیت دی. په اسلامي متنونو کې، هدهد په عمده توګه د حضرت سلیمان (حضرت سلیمان) د مرغۍ په توګه یاد شوی، چا چې د ملکې بلقیس (د شیبا ملکه) خبر راوړ، چې په تاریخ کې یې د مینې ترټولو روحاني کیسې ته وده ورکړه. خو په ولسي عقیده کې، هوپو یوازې یوه مرغۍ نه ده - دا یو ښځینه شعور دی چې الوتنه کوي، ګوري او د مینې ژبه خبرې کوي. ، 🌿 د هدهد په کیسه کې ښځینه عنصر په ډېرو سیمو کې هدهد ته د یوې ښځینه الهې په توګه هم کتل کیږي، چې د روح غږ اوري او سم لوري ته یې ښیي. د هغې چونچ توره نه ده، بلکې د مینې قلم دی - هغه چې اړیکه نیسي. هغه د ملکې بلقیس پیغام رسوونکې وه، خو پخپله یوه خپلواکه روح، یوه هوښیاره اتله، د حکمت او شفقت لرونکې وه. په دې معنی هغه د نیکسوفرا ښځې یوه نمونه ګرځي - خپلواکه، الوتونکې، او د خبرو اترو له لارې بدلون رامینځته...

"प्रेम के पंख: कामदेव और रति के पक्षी-प्रतीक"

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سرلیک: "د مینې په وزرونو کې: کامادیوا-راتي او د دوی سمبولیک موټرونه" سمبولیزم په هندي کلتور کې ژور ریښې لري. هر معبود، د هغه موټر، د هغه رنګ یا د هغه وسله - ټول یو څه ژور معنی ته اشاره کوي. د مینې خدای کامادیو او د هغه میرمنې رتي انځورونه خورا ښکلي او معنی لرونکي دي. په ځانګړې توګه د دوی موټرونه - د کامدیو طوطي او د رتي مینا - د هند په عامه شعور کې د مینې، ښکلا او جذابیت لارې دي. دا مرغان نه یوازې د الهي جوړې سمبول دي بلکې د دوی د څرګندونو او مزاج روښانه مثالونه هم دي. ۱. د کامادیو رسول - د مینې رسول طوطي په هندي کلتور کې د خبرو، خوږوالي او ښکلا سمبول و. د هغې شنه رنګ د ژوند، طبیعت او غوښتنې استازیتوب کوي. کامادیو پخپله د شنه جامو اغوستی، د ګلونو غشی یې په لاس کې نیولی، او د طنز خوږ احساس لري - کوم چې د طوطي طبیعت سره په بشپړ ډول سمون لري. طوطي یو پیغام رسونکی دی - دا په ګوته کوي چې مینه هیڅکله خاموشه نه ده، دا ځینې وختونه د خاموش نظر او ځینې وختونه د یوې کلمې له لارې څرګندیږي. لکه څنګه چې طوطي د انسان خبرې تقلید کوي، مینه هم د هر انسان په خپله ژبه کې څرګندیږي. ۲....

"काकभुशुण्डि: कौवे के रूप में अमर भक्ति की कथा"

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کاکابوشونډي: ابدي عبادت کوونکی، د ګارودا گرو او د رام کتا الهی مرغۍ د هندویزم په لوی دود کې، ډیری حکیمان، اولیاء او عقیدتمندان شتون لري چې ټول کاینات یې د خدای لپاره د خپلې نه ماتېدونکي مینې، توبه او پوهې سره روښانه کړي دي. یو داسې الهی او غیر معمولي سنت کاکابوشونډي دی - چې د کارغه په بڼه راڅرګند شو، د لارډ رام یو پرجوش عقیدتمند او د مرغیو پاچا ګارودا گرو شو. هغه د رامایانا تلپاتې کیسه کوونکی، د پوهې مجسم، او د لویې عقیدت سمبول ګڼل کیږي. ، 🌿 زیږون او لومړنی ژوند د کاکابوشنډي پخوانی زیږیدنه د ایودیا په یوه شودر کورنۍ کې شوې وه. هغه د شیوا عبادت کوونکی و خو د وشنو او د هغه د پیروانو په وړاندې یې کینه درلوده. د همدې غرور له امله، هغه یو ځل خپل ګورو ته سپکاوی وکړ، چې د وشنو یو متقي و. په پایله کې، څښتن شیوا دوی ته لعنت ورکړ چې د زرګونو زیږونونو لپاره د بې ارزښته مخلوق په توګه زیږیدلي وي. خو، له پښېمانۍ او عاجزۍ ډک، هغه له شیوا څخه بخښنه وغوښته. شیوا هغه ته برکت ورکړ چې د زرو زیږونونو وروسته به د برهمن په توګه زیږیدلی وي او د رام په عبادت کې به ډوب شي. او همداسې وشول. ، 🦚 بیا ...

"स्त्री का रक्त और स्वराज्य की रक्षा: नेताजी की दृष्टि"

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सुभाष चंद्र बोस जी की नीति और विचार नारी सम्मान, राष्ट्रसेवा, अनुशासन और कर्तव्यबोध पर आधारित थी। उन्होंने झाँसी की रानी रेजिमेंट जैसी महिला सैन्य इकाई बनाकर यह ऐतिहासिक रूप से सिद्ध कर दिया था कि महिलाएँ भी युद्धभूमि में समान रूप से सक्षम हैं। अब यदि हम आपके प्रश्न को उनके दृष्टिकोण से देखें — > "अगर किसी महिला सैनिक को पीरियड्स (मासिक धर्म) के दौरान युद्ध में जाना पड़े, तो वह क्या करेगी?" तो उत्तर उनकी विचारधारा के अनुसार यह होगा: --- 🩸❗सुभाष चंद्र बोस की नीति के अनुसार: 1. कर्तव्य सर्वोपरि है: सुभाष बाबू की सेना में, पुरुष या महिला – सभी से यही अपेक्षा थी कि वे हर परिस्थिति में राष्ट्रधर्म को प्राथमिकता दें। पीरियड्स कोई बीमारी नहीं, बल्कि प्राकृतिक प्रक्रिया है। यदि महिला की शारीरिक स्थिति युद्ध के लिए उपयुक्त हो, तो उसे पीछे नहीं हटना चाहिए। 2. मानवता और समझदारी: लेकिन सुभाष बाबू ने कभी भी अमानवीय अनुशासन नहीं थोपे। यदि महिला को अत्यधिक पीड़ा या स्वास्थ्य समस्या हो, तो उसे आराम और देखभाल का अधिकार था। उनकी नीतियाँ सामंजस्य और करुणा पर आधारित थीं, बलपूर्वक...