"संयुक्त परिवार: परंपरा की ओट में छिपे अन्याय"

संयुक्त परिवार की काली परछाई: एक पुनर्विचार

संयुक्त परिवारों को भारतीय समाज की रीढ़ कहा गया है। परंतु जब हम इसके अंधेरे पहलुओं की ओर नज़र डालते हैं, तो एक कड़वी सच्चाई सामने आती है—सदियों से स्त्रियों के अस्तित्व, स्वतंत्रता और सम्मान को इसी व्यवस्था में सबसे अधिक कुचला गया है। समाज के अनेक चेहरे इस ढांचे के भीतर ढँके रहते हैं, जो बाहर से दिखते हैं “परंपरा” के नाम पर, पर भीतर से होते हैं स्त्रीविरोधी और अमानवीय।

संयुक्त परिवार में पनपने वाली पुरुष-प्रधान मानसिकता स्त्री को केवल एक सेविका या भोग की वस्तु मानती है। कई बार ऐसे उदाहरण भी सामने आते हैं, जहाँ स्त्रियों को पति के अलावा अन्य पुरुषों से भी संबंध बनाने के लिए मानसिक या सामाजिक रूप से मजबूर किया जाता है। इस तरह की अमानवीयता को परिवार के “संस्कार” और “मर्यादा” के नाम पर छुपा दिया जाता है।

जात-पात की गहरी जड़ें भी इसी संयुक्त ढांचे में पनपती हैं। बचपन से ही बच्चों को सिखाया जाता है कि कौन ऊँचा है, कौन नीचा, और किससे कैसा व्यवहार करना चाहिए। यही मानसिकता बड़े होकर समाज में भेदभाव और हिंसा का कारण बनती है।

इतिहास में झाँकें तो रामायण और महाभारत जैसे महायुद्धों की जड़ें भी पारिवारिक द्वेष, स्त्री पर अत्याचार और परिवार के भीतर की सत्ता-लालसा में थीं। आज भी हमारी सामाजिक और आर्थिक कमजोरियों के पीछे वही ढांचा है, जो स्त्री को स्वतंत्र सोचने, कमाने और निर्णय लेने से रोकता है।

समय आ गया है कि हम परिवार की परिभाषा को फिर से गढ़ें—एक ऐसा परिवार जहाँ हर सदस्य स्वतंत्र, सुरक्षित और सम्मानित हो, न कि भय, दबाव और परंपरागत हिंसा के बीच घुटता हुआ जीवन जिए।

यह निबंध एक आह्वान है—पुरानी व्यवस्था को आँख मूंद कर अपनाने की बजाय, उसे पुनः जाँचे और बदले। तभी एक नया, समतामूलक और सशक्त समाज बन सकेगा।

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