"स्वतंत्रता की सज़ा: नारी, धर्म और दोहरे मापदंड"
निबंध शीर्षक: "नारी की पहचान: धर्म, चरित्र और क्रांति के आईने में"
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भारतीय समाज में नारी की भूमिका सदियों से एक जटिल विमर्श का विषय रही है। जब एक मुस्लिम महिला अपने जीवन की सीमाओं को तोड़कर बाहर निकलती है, अपनी पहचान बनाती है, तो समाज उसे क्रांतिकारी कहता है—क्योंकि वह एक ऐसी दीवार को पार करती है जिसे कभी न पार करने की सीख दी गई थी। उसकी शिक्षा, आत्मनिर्भरता और साहस को सराहा जाता है। वह एक प्रेरणा बनती है।
परंतु, यही मंज़र जब एक हिंदू महिला के संदर्भ में आता है, तो समाज की दृष्टि बदल जाती है। वह अपने अधिकारों के लिए बोलती है, बाहर निकलती है, सोचती है, सवाल करती है—तो उसे 'चरित्रहीन', 'कुलटा', और 'धर्म-भ्रष्ट' जैसे अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया जाता है। इस दोहरे मापदंड ने नारी स्वतंत्रता के संघर्ष को सांस्कृतिक कैद में जकड़ दिया है।
हिंदू समाज, जो वेदों और उपनिषदों की भूमि है, जहाँ गार्गी, मैत्रेयी और दुर्गा जैसी नारियों ने ज्ञान और शक्ति के स्तम्भ खड़े किए, आज उसी समाज में एक स्त्री का घर से बाहर निकलना ही ‘अवसरवादी’ और ‘निंदनीय’ माना जाता है। यह सोच किसने बदली? और क्यों बदली?
वहीं सोशल मीडिया पर सक्रिय कुछ तथाकथित 'कट्टर हिंदू' पुरुष, जिन्होंने नारी को देवी कहकर पूजा जाता है, वे ही अपने डिजिटल मंचों पर महिलाओं के आत्मनिर्णय का मज़ाक उड़ाते हैं। वे संस्कार और संस्कृति के नाम पर पितृसत्ता की दीवारें खड़ी करते हैं, लेकिन खुद न किसी राम के आदर्श को जीते हैं, न किसी शिव की नारी-समता को अपनाते हैं।
नारी धर्म से नहीं, उसकी चेतना से पहचानी जाती है। धर्म, चाहे कोई भी हो—मुस्लिम हो या हिंदू—उसका उपयोग नारी की स्वतंत्रता को बाँधने के लिए नहीं, बल्कि उसे उन्नत करने के लिए होना चाहिए।
आज ज़रूरत है इस सोच को चुनौती देने की। क्रांति केवल पर्दा हटाकर नहीं, दृष्टिकोण बदलकर आती है। एक मुस्लिम महिला जब आवाज़ उठाती है, तो उसकी हिम्मत प्रशंसनीय है। पर एक हिंदू महिला जब वही करती है, तो उसे भी उसी सम्मान के साथ देखा जाना चाहिए।
सत्य यही है कि नारी की गरिमा उसकी स्वतंत्रता में है—not in her silence, but in her assertion.
उसे चरित्र की कसौटी पर नहीं, कर्म की कसौटी पर परखिए।
उसके विचारों को धर्म नहीं, विवेक से मापिए।