“इच्छाओं की अपराधी नहीं, स्वतंत्रता की प्रतिमा है वह”









शीर्षक: “वो औरत जो सिर्फ जीना चाहती थी”

औरत—जिसे समाज देवी कहता है, लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा कहता है—उसी समाज में वह अपने छोटे-छोटे सपनों के लिए भी आलोचना की पात्र बन जाती है। एक पुरुष अगर सफलता और विलासिता की चाह रखे तो उसे ‘प्रेरणास्रोत’ माना जाता है, लेकिन जब एक स्त्री बेहतर जीवन, सुंदर वस्त्र, कीमती गहनों और सुख-सुविधाओं की कामना करती है तो उसे ‘लालची’, ‘स्वार्थी’ या ‘गोल्ड डीगर’ जैसे शब्दों से अपमानित किया जाता है।

क्या स्त्री को अपने जीवन में विलासिता या महंगे स्वाद का हक नहीं? क्या वह सिर्फ त्याग, सहनशीलता और मर्यादा की प्रतिमूर्ति बनकर जीने के लिए बनी है?

यह विडंबना तब और गहरी हो जाती है जब समाज उसी स्त्री को छोटी-छोटी खुशियों से भी वंचित कर देता है। जैसे ही वह मासिक धर्म के समय खुद को सामान्य महसूस करने की कोशिश करती है, उसकी देह को ‘अपवित्र’ घोषित कर दिया जाता है। उसे पूजा से दूर कर दिया जाता है, रसोई में घुसने से रोका जाता है, और यहां तक कि उसे अपने ही घर में अछूत बना दिया जाता है।

इन सबके बीच वह स्त्री जो बस जीना चाहती थी—बिना किसी विशेषाधिकार के, बिना किसी झगड़े के, बस थोड़ी सी खुशी के साथ—वो टूट जाती है। उसकी इच्छाएं समाज के भारी ताले में बंद कर दी जाती हैं, और चाबी उन लोगों के पास होती है जो खुद उसे कभी समझने की कोशिश नहीं करते।

परंतु यह चाबी अब और छुपी नहीं रहेगी।

स्त्री अब जाग चुकी है। वह जान चुकी है कि इच्छाएं अपराध नहीं होतीं, और मासिक धर्म कोई अभिशाप नहीं, बल्कि प्रकृति का वरदान है। वह अपनी विलासिता की चाहत को गुनाह नहीं मानती और अपने अस्तित्व को पवित्र समझती है।

अब समय है कि समाज भी बदले— स्त्री को समझे, स्वीकार करे, और उसे जिए बिना शर्तों के।

क्योंकि औरत सिर्फ मर्यादा की नहीं, स्वतंत्रता की भी मूर्ति है।


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