राम के साथ संबंध
चतुर्थ अध्याय: जटायु का अन्तिम संस्कार – श्रीराम की करुणा और कर्तव्यबोध
रामायण की कथा में अनेक प्रसंग हैं जो मानवीय मूल्यों, त्याग और धर्म के गहरे संदेश देते हैं। ऐसा ही एक मार्मिक और महान प्रसंग है – जटायु का अन्तिम संस्कार। यह न केवल एक पक्षिराज की वीरता का सम्मान है, बल्कि भगवान राम के भीतर बसे गहन करुणा और कर्तव्यबोध की उज्ज्वल झलक भी है।
जब जटायु ने रावण से युद्ध किया, तो उन्होंने यह जानते हुए भी सीता की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दी कि उनका प्रतिद्वंदी अजेय और बलशाली है। उनके घायल होने के बाद, वे सीता का अपहरण होते हुए देख न सके और मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
कुछ समय बाद जब भगवान राम लक्ष्मण के साथ सीता को खोजते हुए उस वनप्रदेश में पहुँचे, तो उन्होंने घायल जटायु को देखा। जटायु ने राम को बताया कि रावण ने सीता का अपहरण किया है और दक्षिण दिशा की ओर गया है। इतना कहकर वह महान पक्षीराज अंतिम साँसें लेने लगे। यह दृश्य अत्यंत करुणाजनक था – एक वान्यपक्षी ने सीता माता की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे।
श्रीराम ने उस समय जिस प्रकार जटायु के अंतिम संस्कार का उत्तरदायित्व निभाया, वह समस्त मानवजाति के लिए एक अनुपम उदाहरण है। उन्होंने न केवल जटायु को ‘पितृतुल्य’ माना, बल्कि स्वयं अग्नि-संस्कार कर विधिवत अंतिम क्रिया संपन्न की। यह कार्य एक अवतारी पुरुष का करुणा से परिपूर्ण कर्तव्य-निर्वाह था।
यह अध्याय हमें सिखाता है कि धर्म की रक्षा में किसी का त्याग व्यर्थ नहीं जाता। जटायु जैसे महान योद्धा भले ही असुरों के हाथों पराजित हुए हों, परंतु उनकी स्मृति अमर हो गई। भगवान राम ने स्वयं यह संदेश दिया कि जो धर्म के लिए बलिदान देता है, उसे देवत्व प्राप्त होता है।
निष्कर्षत:
जटायु का अंतिम संस्कार केवल एक मृत शरीर को अग्नि देने का कार्य नहीं था, बल्कि वह धर्म, करुणा, कर्तव्य और आदर का ऐसा संगम था, जो हमें यह सिखाता है कि सच्चे कर्मवीर को देवताओं का स्थान मिलता है। जटायु के इस प्रसंग से हम यह भी सीखते हैं कि कोई भी प्राणी — चाहे वह मनुष्य हो या पक्षी — यदि वह धर्म के मार्ग पर अपने प्राणों का बलिदान दे, तो वह युगों-युगों तक सम्मानित होता है।
🔱 जय जटायु! धर्मरक्षक वीर! 🔱