रावण से युद्ध




द्वितीय अध्याय: रावण से युद्ध – वीरता का अमर प्रमाण

रामायण की गौरवशाली कथा में कई चरित्र ऐसे हैं जो अपने त्याग, पराक्रम और धर्मनिष्ठा के कारण अमर हो गए। उनमें से एक है जटायु — वह परमवीर पक्षिराज, जिसने अधर्म के विरुद्ध अकेले युद्ध करने का साहस दिखाया। यह अध्याय उस युद्ध की गाथा है, जिसमें जटायु ने रावण जैसे बलशाली राक्षस का मार्ग रोका, केवल इसलिए कि सीता की रक्षा हो सके और धर्म की मर्यादा बनी रहे।

जब रावण सीता का हरण कर आकाश मार्ग से लंका की ओर ले जा रहा था, तभी दंडकारण्य के वनों में निवास करने वाले वृद्ध जटायु की दृष्टि उन पर पड़ी। उन्होंने बिना किसी संकोच के रावण को ललकारा। यह जानते हुए भी कि वह आयु में वृद्ध हैं और रावण बल, छल और अस्त्रों में प्रवीण है, जटायु पीछे नहीं हटे।

उन्होंने रावण से कहा —
"यदि तू वास्तव में वीर है, तो स्त्री का अपहरण क्यों करता है? धर्म का मार्ग छोड़ दे और इसे यहीं छोड़ जा, नहीं तो मुझे तुझे रोकना ही होगा।"

यह घोषणा धर्म की रक्षा की घोषणा थी। जटायु ने रावण पर आक्रमण किया — उनके पंजों से, उनके पंखों से, अपने पूरे बल से। कई बार उन्होंने रावण के रथ को उलझाया, सीता को छुड़ाने का प्रयास किया, परंतु रावण ने अपने खड्ग से जटायु के पंख काट डाले। घायल होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़े, परन्तु सीता को सांत्वना देते हुए बोले —
"माता, मैं राम को सब बताऊँगा। तुम धैर्य रखना।"

यह युद्ध केवल बल का नहीं, आत्मबल और धर्मबल का था। जटायु की यह वीरता उन्हें केवल एक पक्षी नहीं, बल्कि धर्मरक्षक का दर्जा देती है। उन्होंने अपने जीवन की अंतिम सांस तक अधर्म के विरुद्ध संघर्ष किया।

यह अध्याय हमें यह सिखाता है कि धर्म की रक्षा में आयु, शक्ति या परिस्थिति आड़े नहीं आती — यदि मन में निष्ठा है, तो अकेला भी पूरी दुनिया के अन्याय का सामना कर सकता है। जटायु का यह युद्ध भारत की सांस्कृतिक चेतना में उस धर्मयोद्धा का प्रतीक है, जो अंत तक सत्य और नारी की मर्यादा की रक्षा करता है।

– जय जटायु।


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