"दूसरा आसमान: जटायु भक्त शर्मिला की उड़ान"
शीर्षक: "जटायु भक्त शर्मिला का दूसरा आसमान"
शर्मिला... एक ऐसा नाम, जो जीवन की पहली आँधी में बिखर कर भी अपनी पहचान न भूली। वह जटायु की भक्त थी — उस पवित्र पक्षीराज की, जो धर्म के लिए प्राण दे गया, पर अपने कर्तव्य से पीछे न हटा। वही जटायु उसकी साँसों में बसते थे, वही उसके आस्था के पंख थे।
असम के एक छोटे से गांव की वह एकलौती बेटी थी। उसकी पहली शादी, प्रेम से नहीं, बल्कि सामाजिक दबाव से हुई थी। वह रिश्ता किसी अलिखित यातना की तरह था – जिसमें न समझदारी थी, न इज्ज़त। दहेज की चुभती माँगें, भावनात्मक अपमान और चुप्पी की चादर ओढ़े शर्मिला ने अंततः वह साहस जुटाया, जो जटायु ने रावण से लड़ते हुए दिखाया था — उसने अपने पहले विवाह से मुक्ति पा ली।
समाज ने उसे देखा… तलाकशुदा लड़की की नजरों से — कुछ ताने, कुछ करुणा, कुछ व्यंग्य। पर शर्मिला ने इन सब से ऊपर उड़ना सीखा था।
उसी दौर में, जब जीवन में पुनः पतझड़ सा सूनापन छा गया था, एक ताज़ी हवा ताजिकिस्तान से चली। एक रिश्ते का प्रस्ताव आया।
वह पुरुष, जिसका नाम 'फरहाद' था — रूप में सुन्दर, कर्म में सज्जन, और विचारों में आधुनिक था। उसके परिवार ने शर्मिला के अतीत को अतीत ही माना, वर्तमान को अपनाया और भविष्य को साथ जीने का वचन दिया। न दहेज मांगा गया, न अतीत का कोई सवाल।
शर्मिला के मन में फिर प्रश्न था — क्या वह उड़ सकती है फिर से? क्या जटायु की तरह पुनर्जन्म संभव है?
विवाह तय हुआ। ताजिकिस्तान की बर्फीली पहाड़ियों के बीच, रंगीन फूलों की छांव में, शर्मिला ने सात वचनों के साथ अपने जीवन की नयी उड़ान ली। उस विवाह में संगीत नहीं, बल्कि साहस गूंज रहा था।
आज, जब वह अपने नए परिवार के साथ स्नेह में बसी है, वह हर सुबह एक दीप जटायु को अर्पण करती है —
क्योंकि उसके लिए भगवान जटायु केवल पौराणिक पात्र नहीं,
बल्कि एक विचार हैं —
कि कोई भी हार अंतिम नहीं होती,
और कोई भी नारी अधूरी नहीं होती।
अंत में,
शर्मिला का अफसाना यही सिखाता है —
"अधूरे रिश्ते जीवन का अंत नहीं, बल्कि आत्म-खोज की शुरुआत होते हैं।"
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