जटायु का अंतिम संस्कार
"अग्नि-संस्कार: जटायु को श्रीराम की श्रद्धांजलि"
पाँचवां अध्याय: भगवान राम द्वारा जटायु का अंतिम संस्कार – धर्म की मर्यादा का अनुपम आदर्श
जटायु का बलिदान केवल युद्ध का प्रसंग नहीं था, बल्कि यह धर्म, निष्ठा और वीरता की चरम सीमा थी। रामायण में जब जटायु ने रावण से युद्ध किया, तो वह जानता था कि वह वृद्ध है, फिर भी उसने धर्म की रक्षा हेतु प्राणों की आहुति देने में तनिक भी संकोच नहीं किया। रावण द्वारा घायल किए जाने के पश्चात जब भगवान श्रीराम और लक्ष्मण सीता की खोज करते हुए वहां पहुँचे, तब उन्होंने जटायु को मरणासन्न अवस्था में देखा।
जटायु ने अपने अंतिम श्वासों में रावण की दिशा बताकर सीता माता के हरण की पुष्टि की और राम को एक नई राह दिखाई। भगवान राम का जटायु के प्रति प्रेम और श्रद्धा देखकर संपूर्ण सृष्टि भावविभोर हो उठी। श्रीराम ने जटायु को पितृतुल्य मानकर स्वयं उसका अंतिम संस्कार किया। उन्होंने उस योद्धा पक्षी को वह सम्मान दिया, जो सामान्यतः एक पिता को ही प्राप्त होता है।
यह दृश्य केवल एक अंतिम संस्कार नहीं था — यह धर्म की मर्यादा, जाति और रूप के भेद से ऊपर उठकर कर्म की शुद्धता को सम्मान देने की घटना थी। जटायु का वध न होकर, उनका जीवन उद्देश्यपूर्ण सिद्ध हुआ। वे न केवल श्रीराम के लिए सम्माननीय बने, बल्कि समस्त मानवता के लिए धर्मरक्षा हेतु प्राणोत्सर्ग का प्रतीक बन गए।
श्रीराम द्वारा जटायु का अंतिम संस्कार हमें यह सिखाता है कि धर्म, भक्ति और निष्ठा केवल शब्द नहीं, अपितु कर्म के बल से पोषित होते हैं। यह अध्याय इस पुस्तक का भावनात्मक शिखर है, जो पाठकों को बताता है कि ईश्वर भक्त की भावना को पहचानता है और उसके योगदान को युगों तक अमर कर देता है।
जय जटायवे नमः!
वह योद्धा पक्षिराज, जिसने धर्म की रक्षा हेतु अमरत्व प्राप्त किया।