"इंसानियत से परे नहीं है औरत की पहचान"





निबंध का शीर्षक:
"औरत: रोटी-कपड़े से परे एक इंसान की पहचान"


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समाज में एक आम धारणा रही है कि यदि एक स्त्री को रोटी, कपड़ा और मकान मिल जाए, तो उसे और कुछ नहीं चाहिए। यह सोच एक गहरी मानसिक ग़ुलामी का परिचायक है, जिसमें औरत को केवल जीवित रहने योग्य सुविधाएँ देकर उसकी आत्मा, उसके स्वाभिमान, उसके अधिकार और उसकी इंसानियत को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

औरत कोई वस्तु नहीं है जिसे बस छत के नीचे रखकर यह समझ लिया जाए कि उसके जीवन की सारी ज़रूरतें पूरी हो गईं। वह भी एक इंसान है, जिसके भीतर भावनाएँ हैं, सपने हैं, सम्मान की आकांक्षा है। एक पुरुष जब समाज में अपनी पहचान बनाता है, तो वह केवल पेट भरने के लिए नहीं जीता — वह इज्जत, आत्मसम्मान और स्वायत्तता की चाह रखता है। तो फिर यही अधिकार एक स्त्री से क्यों छीन लिया जाता है?

जब कोई कहता है कि "उस औरत को तो सबकुछ मिल गया — खाना, पहनने को कपड़ा और रहने को घर," तो यह भूल जाता है कि यही सबकुछ तो एक भिखारी को भी मिल सकता है। स्त्री को इन चीज़ों के साथ-साथ एक गरिमामय स्थान भी चाहिए, जहाँ उसकी बात सुनी जाए, उसकी भावनाओं का सम्मान हो, और उसे भी निर्णय लेने का अधिकार मिले।

औरत को जब केवल उपयोग की वस्तु समझा जाता है, जब उसकी आवाज़ दबा दी जाती है, जब उसके आत्मसम्मान को कुचला जाता है, तब धीरे-धीरे वह टूटने लगती है। उसका आत्मविश्वास चकनाचूर होता है, और अंततः वह खुद को इंसान समझना तक भूल जाती है। एक टूटी हुई आत्मा से इंसानियत की उम्मीद करना न केवल मूर्खता है, बल्कि क्रूरता भी।

इसलिए, समाज को यह समझना होगा कि औरत सिर्फ तन से नहीं, मन से भी जीती है। उसे केवल सुविधाएँ नहीं, बराबरी और सम्मान भी चाहिए। जब तक हम उसे पूरा इंसान नहीं मानेंगे, तब तक हम खुद भी अधूरे रहेंगे। और याद रखो, जब एक औरत का गरुर टूटता है, तब इंसानियत की नींव भी हिलने लगती है।


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जय मातृशक्ति। ✊🏼


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