"बोडो अस्मिता का प्रहरी: संसुमा ब्विसमुथिार्य"
संसुमा खुङ्गगुर ब्विसमुथिार्य: बोडो अस्मिता की आवाज़
भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में कई जनजातियाँ और भाषाएँ ऐसी हैं, जिन्हें राष्ट्रीय मंच पर अपनी पहचान और अधिकारों के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। इन संघर्षों की अगुवाई करने वाले कुछ अद्वितीय नेताओं में से एक हैं संसुमा खुङ्गगुर ब्विसमुथिार्य (Sansuma Khunggur Bwiswmuthiary)। वे बोडो समुदाय के एक सशक्त प्रतिनिधि, निर्भीक नेता और बोडो भाषायी अस्मिता के रक्षक माने जाते हैं।
प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि
संसुमा ब्विसमुथिार्य का जन्म 1960 में असम के कोकराझार ज़िले में हुआ था, जो बोडोलैंड क्षेत्र का सांस्कृतिक और राजनीतिक केंद्र है। वे बोडो समुदाय से संबंधित हैं, जो भारत की एक प्रमुख आदिवासी जनजाति है और जिनकी भाषा और संस्कृति को दशकों से पहचान की तलाश रही है।
उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत बोडोलैंड के स्वायत्तता आंदोलन से की थी। इस आंदोलन का उद्देश्य बोडो लोगों को उनकी सांस्कृतिक, भाषाई और राजनीतिक पहचान दिलाना था।
राजनीतिक जीवन
संसुमा ब्विसमुथिार्य 1998 से 2009 तक चार बार लोकसभा सांसद रहे। उन्होंने कोकराझार लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया, और हर बार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतकर संसद में पहुँचे। यह एक असाधारण उपलब्धि थी, क्योंकि उन्होंने किसी बड़े राष्ट्रीय दल के समर्थन के बिना बोडो समुदाय के विश्वास को अर्जित किया।
उनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही — बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (Bodoland Territorial Council - BTC) की स्थापना और बोडो भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने में योगदान। वे बोडो साहित्य, भाषा और शिक्षा को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने के कट्टर समर्थक रहे।
बोडो भाषा का संरक्षण
ब्विसमुथिार्य ने बोडो भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए निरंतर संघर्ष किया। उनके प्रयासों का ही परिणाम है कि 2003 में बोडो भाषा को आधिकारिक रूप से भारत की 22 मान्य भाषाओं में शामिल किया गया। यह बोडो समुदाय के लिए ऐतिहासिक क्षण था, और इस सफलता में ब्विसमुथिार्य का बड़ा योगदान माना जाता है।
सांस्कृतिक और सामाजिक योगदान
राजनीति से परे, वे बोडो संस्कृति, परंपरा और लोक साहित्य के गहरे अध्येता रहे हैं। उन्होंने जनसभा, रैलियों और संसद दोनों मंचों पर बोडो अस्मिता की आवाज़ बुलंद की। उनका मानना था कि किसी भी समुदाय की पहचान उसकी भाषा और संस्कृति से होती है, और जब तक इनकी रक्षा नहीं की जाती, तब तक कोई भी विकास अधूरा है।
निष्कर्ष
संसुमा खुङ्गगुर ब्विसमुथिार्य केवल एक राजनेता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक योद्धा हैं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि यदि किसी व्यक्ति में अपने समुदाय और भाषा के लिए सच्ची निष्ठा हो, तो वह बिना किसी राजनीतिक समर्थन के भी राष्ट्रीय मंच पर अपनी आवाज़ बुलंद कर सकता है।
उनकी यात्रा बोडो जनजाति ही नहीं, बल्कि भारत के सभी आदिवासी समुदायों के लिए एक प्रेरणा है — अपने अस्तित्व, अस्मिता और अधिकारों की लड़ाई में संकल्प, एकता और स्वाभिमान की महत्ता को समझने की।