सीता की रक्षा
तृतीय अध्याय: सीताहरण में जटायु का धर्मयुद्ध
रामायण की कथा केवल देवताओं की महिमा का वर्णन नहीं करती, बल्कि उसमें ऐसे महान प्राणियों का योगदान भी समाहित है जो धर्म और नारी मर्यादा की रक्षा के लिए अपने प्राणों की भी आहुति देने को तत्पर रहते हैं। ऐसे ही एक महान योद्धा थे – जटायु। यह अध्याय उस क्षण का विवरण करता है जब धर्म संकट में था, और एक पक्षिराज ने अधर्म के विरुद्ध आकाश में युद्ध किया।
जब रावण सीता का हरण कर उन्हें अपने पुष्पक विमान में लेकर लंका की ओर जा रहा था, तब मार्ग में जटायु ने उसे रोका। उन्होंने जान लिया कि यह कार्य अधर्म का है और एक राक्षस द्वारा एक अबला स्त्री का बलात् अपहरण किया जा रहा है। यद्यपि जटायु वृद्ध थे, किंतु उन्होंने अपने जीवन की परवाह किए बिना, सीता की रक्षा हेतु युद्ध का निर्णय लिया।
इस युद्ध का चित्रण केवल भौतिक युद्ध नहीं था, वह धर्म और अधर्म के बीच एक निर्णायक मुठभेड़ थी। जटायु ने रावण से कहा –
"यदि तू मर्यादा का उल्लंघन करेगा, तो मैं भले ही वृद्ध हूँ, पर रघुकुल की मर्यादा की रक्षा के लिए तुझे रोके बिना नहीं रुकूँगा।"
जटायु ने रावण के विमान पर आघात किए, उसके रथ को नीचे गिराने का प्रयास किया, और सीता को छुड़ाने के लिए अपने पंखों की पूरी शक्ति से युद्ध किया। किंतु रावण बलशाली था – उसने जटायु के पंख काट दिए। घायल होकर जटायु धरती पर गिर पड़े, परंतु उन्होंने हार नहीं मानी – वे तब तक जीवित रहे जब तक श्रीराम को न बता सकें कि सीता का अपहरण किसने और किस दिशा में किया।
यह अध्याय दर्शाता है कि धर्म की रक्षा के लिए आयु नहीं, साहस और निष्ठा आवश्यक होती है। जटायु के इस त्याग ने उन्हें केवल रामायण का एक पात्र नहीं, बल्कि नारी सम्मान के रक्षक और धर्मनिष्ठ योद्धा के रूप में अमर कर दिया।
इस अध्याय में जटायु का साहस, उनका अंतिम युद्ध और उनकी अंतिम साँसों में भी धर्म के प्रति समर्पण, आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाता है –
"जो अपने जीवन को दूसरों की रक्षा में अर्पित करता है, वही सच्चा वीर होता है।"