"इबादत का सत्य: हर रूप में ईश्वर"
बुतपरस्ती और इबादत के मायने
बुतपरस्ती या मूर्ति पूजा पर जब विचार करते हैं, तो हमें इसके गहरे अर्थों और जीवन में इसकी भूमिका पर ध्यान देना चाहिए। यदि हम सोचें, तो हर वह कार्य जो हम अपने दिल और ध्यान से करते हैं, एक प्रकार की इबादत ही है। चाहे वह किसी मूर्ति के सामने झुकना हो, अपने जीवनसाथी के प्रति स्नेह व्यक्त करना हो, या भोजन और वस्त्रों को आदरपूर्वक स्पर्श करना हो।
मूर्ति पूजा के प्रति अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि मिट्टी से बनी मूर्ति में शक्ति नहीं होती, लेकिन क्या यही बात हमारे शरीर पर लागू नहीं होती? हमारा शरीर भी तो मिट्टी का बना है, जो एक दिन मिट्टी में ही मिल जाएगा। यदि हम एक मूर्ति को केवल मिट्टी मानते हैं, तो अपने प्रियजनों, अपने जीवनसाथी या बच्चों के शरीर को भी मिट्टी का एक ढांचा मानना चाहिए। परंतु हम ऐसा नहीं करते। क्यों? क्योंकि हम जानते हैं कि इन रिश्तों के पीछे भावनाएँ, प्रेम और समर्पण है।
मूर्ति भी केवल मिट्टी नहीं है। यह हमारी आस्था, विचार और भावनाओं का प्रतीक है। जब हम किसी मूर्ति के सामने प्रार्थना करते हैं, तो हमारा ध्यान उस शक्ति पर केंद्रित होता है, जो हमारे लिए पवित्र और आदरणीय है। ठीक वैसे ही, जैसे हम अपने जीवनसाथी या माता-पिता के प्रति प्रेम और आदर व्यक्त करते हैं।
ध्यान से देखें तो जीवन के हर कार्य में एक तरह की बुतपरस्ती शामिल है। भोजन को ग्रहण करते समय हम उसे ध्यान और आदरपूर्वक स्पर्श करते हैं। कपड़े पहनते समय हम उन्हें सहेजकर पहनते हैं, क्योंकि वे हमारी गरिमा का प्रतीक हैं। किसी सस्ती या महंगी वस्तु को छूते समय भी हम उसके प्रति एक प्रकार का सम्मान दिखाते हैं। यह सब कहीं न कहीं हमारे भीतर के उस श्रद्धा भाव को दर्शाता है, जो हर चीज में ईश्वर को देखने की क्षमता रखता है।
सवाल यह नहीं है कि मूर्ति पूजा सही है या गलत। सवाल यह है कि हम अपने कर्म और भावनाओं को किस तरह से जीते हैं। यदि एक मिट्टी की मूर्ति के प्रति ध्यान और श्रद्धा से हम अपनी भावनाओं को शुद्ध कर सकते हैं, तो इसमें बुराई क्या है? और यदि हमें यह लगता है कि केवल मूर्ति पूजा ही गलत है, तो हमें यह समझना चाहिए कि हर वह कार्य, जिसमें हम किसी चीज या व्यक्ति को आदर देते हैं, एक प्रकार की पूजा ही है।
इसलिए, यह कहना कि मिट्टी की मूर्ति पूजा गलत है, सही नहीं होगा। हमारे रिश्ते, हमारा शरीर, हमारे कार्य—सब एक तरह की बुतपरस्ती का ही रूप हैं। यह इबादत है, जो हमें अपने भीतर के प्रेम, समर्पण और श्रद्धा को महसूस करने का अवसर देती है।
आखिरकार, मूर्ति केवल माध्यम है। सच्ची इबादत हमारे दिल और कर्मों में बसती है। यही जीवन का सार है।