शब्दों का साधु: गिरिपदा देव चौधरी





गिरिपदा देव चौधरी: असमिया साहित्य और प्रकाशन के सजग प्रहरी

गिरिपदा देव चौधरी का जन्म 15 अगस्त 1932 को असम के बाजाली जिले के पाटाचारकुची नामक स्थान में हुआ था। वे न केवल असमिया साहित्य और संस्कृति के सशक्त संवाहक थे, बल्कि उन्होंने असम के शैक्षिक एवं प्रकाशन क्षेत्र में भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गुवाहाटी स्थित बानी प्रकाशन—जो कि राज्य के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित प्रकाशन गृहों में से एक है—के वे संस्थापक और स्वामी थे। उनका जीवन साहित्य, शिक्षा और समाज की सेवा के प्रति समर्पण का प्रतीक था।

गिरिपदा देव चौधरी का साहित्यिक और सामाजिक योगदान बहुआयामी रहा। वे "अखिल असम प्रकाशक एवं पुस्तक विक्रेता संघ" के अध्यक्ष थे, और इस भूमिका में उन्होंने असम में पुस्तकों के प्रचार-प्रसार, प्रकाशन की गुणवत्ता और पुस्तक वितरण की पारदर्शिता हेतु कई प्रयास किए। उनका मानना था कि पुस्तकों तक सभी की समान पहुँच होनी चाहिए, और यही कारण था कि उन्होंने कई शैक्षिक मुद्दों पर भी खुलकर विचार प्रकट किए।

उनकी प्रकाशित कृतियों में "बत्रिश पुतलार साधु" और "कुकी मोनाहोटर साधु" जैसी लोकप्रिय असमिया पुस्तकें शामिल हैं। इन कृतियों ने असमिया समाज के लोकाचार, मूल्यों और सांस्कृतिक चेतना को जीवंत बनाए रखने का कार्य किया है। वे केवल एक प्रकाशक नहीं थे, बल्कि संस्कृति के संरक्षक भी थे।

शिक्षा के क्षेत्र में भी गिरिपदा देव चौधरी की भागीदारी उल्लेखनीय रही। उन्होंने एनसीईआरटी पाठ्यक्रमों के असमिया संस्कृति पर प्रभाव, पाठ्यपुस्तकों की उपलब्धता और छात्रों पर पड़ने वाले शैक्षिक दबाव जैसे मुद्दों पर गंभीर चिंतन किया और अपनी आवाज़ बुलंद की। उनका विश्वास था कि शिक्षा केवल ज्ञान नहीं, बल्कि समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव भी जाग्रत करे।

गिरिपदा देव चौधरी के निधन पर असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने गहरा शोक प्रकट करते हुए उन्हें एक दूरदर्शी और समाजसेवी व्यक्तित्व बताया। उनका जाना असमिया साहित्य, शिक्षा और संस्कृति के लिए अपूरणीय क्षति है।

आज जब हम ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने की बात करते हैं, तो गिरिपदा देव चौधरी जैसे व्यक्तित्व हमें यह सिखाते हैं कि संस्कृति, शिक्षा और प्रकाशन जैसे स्तंभों को मज़बूत बनाए बिना कोई समाज सशक्त नहीं हो सकता।

नमन है उन्हें—जो शब्दों के रक्षक थे, संस्कृति के साधक थे।


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