lovestory of korean soldier and Assamese girl








दिल्ली में मिला दिल

(इशा बोडो और चियांग की सच्ची प्रेम कहानी)

साल 2023 की बात है।
शरद ऋतु का मौसम था, जब असम के कोकराझार जिले की एक साधारण किंतु तेजस्वी युवती इशा बोडो अपने मामा के परिवार के साथ दिल्ली घूमने आई। पारंपरिक असमिया मेखला-चादर में सजी इशा के मन में नयी जगहें देखने की उत्सुकता थी। उसकी आंखों में गांव की सरलता और हृदय में स्वाभिमानी नारीत्व की चमक थी।

उसी समय, दक्षिण कोरिया की सेना में कार्यरत एक जवान चियांग भारत के एक विशेष सैन्य कार्यक्रम के अंतर्गत दिल्ली आया हुआ था। उसे भारत की संस्कृति में गहरी रुचि थी — खासकर असम, मणिपुर और नागालैंड जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में। वह अपने कैमरे के साथ दिल्ली की गलियों में इतिहास और जीवन की तस्वीरें समेट रहा था।

उनकी पहली मुलाकात लाल किला के पास हुई।

इशा अपने परिवार के साथ किले के द्वार पर तस्वीर खिंचवा रही थी, तभी एक हल्की ठोकर लगते ही उसके हाथ से छोटा बैग गिरा। चियांग, जो पास में ही खड़ा था, तुरंत झुककर बैग उठाया और मुस्कुराते हुए बोला,
"Hello… is this yours?"

इशा थोड़ी हिचकी, फिर बोली,
"Yes… Thank you!"
फिर उसने धीमे से जोड़ा,
"Namaskar."

वो पहली मुस्कान जैसे उनके बीच की हर सांस्कृतिक दूरी मिटा गई।
चियांग ने पूछा,
"Are you from the Northeast? Assam maybe?"
इशा चौंकी, पर खुश भी हुई —
"Yes! I’m from Kokrajhar. How do you know?"
चियांग ने हंसते हुए कहा,
"I read a lot about Bodo culture. I want to visit there someday."

और यहीं से उनके संवादों का, मेलों का, और मेलजोल का एक सुंदर अध्याय शुरू हुआ।


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दिल्ली की गलियों से दिल तक

उनके दिल्ली प्रवास के तीन दिन — इतिहास के पन्नों जैसे थे। कभी हुमायूं के मकबरे की सीढ़ियों पर बैठकर चाय पीते, कभी इंडिया गेट के नीचे बैठकर सपने बुनते।

चियांग को इशा की सादगी मोह लेती थी, और इशा को चियांग की नम्रता व संयम।

तीन दिन के बाद विदाई का समय आ गया।
दिल्ली रेलवे स्टेशन पर चियांग ने इशा की ओर हाथ बढ़ाया और कहा,
"Can we stay in touch?"

इशा ने उसकी हथेली में एक छोटा कागज़ रख दिया — उस पर उसका फोन नंबर और एक शब्द लिखा था:
"Biswas" (विश्वास)।


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दो वर्षों की परीक्षा

दोनों देशों के बीच समय, भाषा और दूरी — सब कुछ था। लेकिन इन दो वर्षों में उन्होंने रोज़ संवाद किया। चिट्ठियों से लेकर वीडियो कॉल तक, त्योहारों की बधाइयों से लेकर जीवन की उलझनों तक — वे एक-दूसरे के अभिन्न साथी बन गए।

इशा ने कोरियाई भाषा के शब्द सीखने शुरू किए — "사랑해" (सारांहे - I love you)
और चियांग ने बोडो में “Angkhou mwjang mwjang” (मैं तुम्हें बहुत चाहता हूँ) कहना सीखा।

परिवारों को समझाना आसान नहीं था।
पर चियांग एक दिन खुद असम पहुंचा — इशा के गांव। वह बांस की टोपी और गमछा लेकर इशा के पिता के सामने खड़ा था। उसकी आंखों में आदर था, और इरादों में सच्चाई।


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शादी: दो संस्कृतियों का मिलन

आख़िरकार, साल 2025 में, उसी लाल किले के सामने, जहां वे पहली बार मिले थे — दोनों ने विवाह कर लिया।

सुबह को असमिया रीति से मेखला-चादर और पाग पहनकर, और दोपहर को कोरियाई हनबोक और संगीत के साथ, एक सुंदर युगल की तरह उन्होंने अपनी जिंदगी की यात्रा शुरू की।

उनकी शादी न केवल दो व्यक्तियों का मिलन थी, बल्कि दो संस्कृतियों का आलिंगन भी —
ब्रह्मपुत्र की लहरें और कोरियाई पहाड़ों की शांति एक साथ बहने लगे।


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अब और आगे

इशा और चियांग अब गुवाहाटी और सियोल — दोनों जगह एक संस्था चलाते हैं जो भारत-कोरिया सांस्कृतिक मेल और स्त्री-सशक्तिकरण के लिए काम करती है।

उनकी कहानी हर साल दिल्ली के स्कूलों में सुनाई जाती है —
एक साधारण मुलाकात से जन्मे असाधारण प्रेम की अमर गाथा।


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अंतिम पंक्तियाँ:
"जहाँ भाषा हार जाए, वहाँ प्रेम बोलता है।
जहाँ सीमाएँ बनती हैं, वहीं दिल उन्हें मिटा देते हैं।"

– कहानी समाप्त


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