“रेत में खिलता दूसरा जीवन”
🌙 “रेत का वादा” — एक अफसाना
अफ़गानिस्तान की पहाड़ियों पर सरद हवा बह रही थी। सर्दियों के शुरुआती दिनों में धूल भरी सड़कें जैसे अपने भीतर छिपे अनगिनत किस्सों को धीरे-धीरे हवा में उड़ा देती थीं। इन्हीं रास्तों के किसी कोने में रहती थी मरयम, एक 26 वर्षीया तलाकशुदा महिला, जिसकी गोद में उसकी चार साल की बेटी नाज़िया थी।
मरयम का जीवन आसान नहीं था। पति ने उसे छोड़ दिया था, समाज ने उसे ताने दिए थे, और बीते दो वर्षों से वह अपनी माँ के घर रह रही थी। हर सुबह जब वह चूल्हे पर खड़े होकर रोटी बनाती, तो सोचती—
“क्या एक स्त्री का जीवन यहीं खत्म हो जाता है? क्या उसका भविष्य सिर्फ उसके अतीत की छाया है?”
एक दिन गाँव के बुजुर्ग उसकी माँ के घर आए। उन्होंने बताया कि गाँव में एक नई पहल शुरू हुई है—
अकेली और तलाकशुदा महिलाओं के पुनर्विवाह की।
यह पहल गाँव के मौलवियों और प्रशासन की अनुमति से चल रही थी, ताकि ऐसी स्त्रियों को सुरक्षा और सम्मान मिले।
मरयम चुप रही। उसकी आँखों में संकोच भी था और डर भी।
उसी शाम बुजुर्गों ने एक नाम सुझाया—
ज़ाहिर, जो तालिबान सरकार का एक युवा सैनिक था।
ज़ाहिर कई महीनों से पहाड़ों में तैनात था। उसकी उम्र मुश्किल से 28 वर्ष रही होगी। वह कठोर दिखता था, पर उसकी आँखों में एक अजीब सी मासूमियत थी — जैसे किसी ने उसके भीतर के इंसान को अब तक ठीक से देखा ही न हो।
अगले दिन, ज़ाहिर मरयम के घर आया। दोनों के बीच खामोशियाँ ज़्यादा थीं और बातें कम।
ज़ाहिर ने धीरे से पूछा —
“क्या आप अपनी मर्ज़ी से ये रिश्ता चाहती हैं?”
मरयम ने अपनी बेटी को गोद में लेते हुए कहा,
“मैं बस इतना चाहती हूँ कि मेरी बेटी सुरक्षित रहे… और मैं भी इज़्ज़त से सांस ले सकूँ।”
ज़ाहिर कुछ पल चुप रहा। फिर बोला—
“अगर आप चाहें… मैं आपकी बेटी को अपनी बेटी की तरह अपनाऊँगा। और आपको… अपने घर की मालिकन बनाऊँगा। लेकिन मजबूरी में नहीं। फैसला आपका होगा।”
इन शब्दों में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं थी, बल्कि एक टूटे जीवन को गले लगाने की विनम्रता थी।
दो दिन बाद, मरयम ने अपना निर्णय बता दिया—
“हाँ। मैं यह रिश्ता स्वीकार करती हूँ।”
गाँव की मस्जिद में सादगी से निकाह हुआ। मरयम ने हल्के नीले रंग की चादर ओढ़ी थी। नाज़िया उसके पास बैठी थी, और ज़ाहिर की आँखों में एक अनकहा वादा था—
“मैं तुम्हें और तुम्हारी बेटी को कभी अकेला नहीं छोड़ूँगा।”
निकाह के बाद जब वे घर लौटे, तो ज़ाहिर ने दरवाज़े पर रुककर कहा—
“मरयम, यह सिर्फ मेरा घर नहीं है। यह अब हमारा घर है।”
मरयम की आँखें भर आईं।
इतने सालों बाद किसी ने पहली बार “हमारा” कहा था।
रात को उसकी बेटी नाज़िया ज़ाहिर की उंगली पकड़कर बोली—
“बाabaa… मैं सो जाऊँ?”
ज़ाहिर की पलकों पर नमी तैर गई।
वह घुटनों के बल बैठा और बोला—
“हाँ बेटी… चलो।”
उस क्षण मरयम को लगा कि उसका टूटा हुआ जीवन मानो फिर से जुड़ गया हो।
न कोई शोर,
न कोई तामझाम,
बस दो टूटे हुए दिल…
एक नया घर बसाने के लिए बस एक-दूसरे का सहारा बन गए थे।
और अफ़गानिस्तान की ठंडी रात में कहीं दूर…
रेत की हवाएँ यह फुसफुसाती रहीं—
कि हर स्त्री, चाहे उसने कितना भी दुःख देखा हो,
एक न एक दिन अपना सुरक्षित आसमान पा ही लेती है।