“सत्यप्रणाह: धर्म की नवज्योति” 🌕
🎭 नाटक का शीर्षक
“प्रकृति धर्म की स्थापना: सत्यप्रणाह और धृतचंद्र की गाथा”
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🌿 पात्र:
सत्यप्रणाह देवी — नई चेतना की प्रवर्तक, जिनका लक्ष्य प्रकृतिवाद, शाकाहार और नारीवाद का धर्म स्थापित करना है।
धृतचंद्र वीर — उनके रक्षक, गुरुपिता और सहधर्मी, जो त्याग, निष्ठा और अनुशासन के प्रतीक हैं।
जनसभा — जनता का स्वर, जो अंधविश्वास और भ्रम में उलझी है।
संन्यासी — पुरातन पंथ का प्रतिनिधि, जो सत्यप्रणाह के मार्ग का विरोध करता है।
वनदेवी का स्वर — प्रकृति की आत्मा, जो अंतिम दृश्य में आशीर्वाद देती है।
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🌕 अंक – एक
दृश्य १: अरण्य का मध्य
(मंच पर वृक्षों की छाया, पीछे पक्षियों का मधुर स्वर। सत्यप्रणाह ध्यानस्थ बैठी हैं।)
धृतचंद्र: (आते हुए)
देवि, आज फिर जनसभा में अंधकार फैल गया है।
लोग कहते हैं — “नारी धर्म नहीं रच सकती।”
वे आपके स्वप्न से भयभीत हैं।
सत्यप्रणाह: (शांत स्वर में)
धृतचंद्र, वे भयभीत नहीं — वे अस्थिर हैं।
सदियों से जो धर्म केवल पुरुषों की वाणी में गूँजता रहा,
वह आज स्त्री की चेतना से कंपन महसूस कर रहा है।
धृतचंद्र:
किन्तु देवी, यदि वे क्रोधित हुए तो हिंसा होगी।
मैं आपकी रक्षा करूँगा।
सत्यप्रणाह:
(मृदु मुस्कान से)
वीर, तुम रक्षक नहीं — साक्षी बनो।
धर्म तब तक अधूरा है जब तक उसमें
नारी का स्पर्श और प्रकृति की करुणा नहीं समाई।
(धीमे संगीत के साथ प्रकाश मंद होता है)
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🌕 अंक – दो
दृश्य २: जनसभा
(ग्रामीण, संन्यासी और शिष्य इकट्ठा हैं। सत्यप्रणाह और धृतचंद्र आगे खड़े हैं।)
संन्यासी:
(कठोर स्वर में)
धर्म का मार्ग तपस्या और व्रतों से बनता है —
न कि वृक्षों और स्त्रियों की बातों से!
सत्यप्रणाह:
(शांत किंतु दृढ़ स्वर में)
धर्म तप नहीं — समरसता है।
जो वृक्ष को काटता है, वह अपने प्राण का ही अंग काटता है।
जो नारी का अपमान करता है, वह धरती माता की निंदा करता है।
इसलिए मैं कहती हूँ —
> “प्रकृति ही वेद है, करुणा ही मंत्र, और नारी ही अग्नि।”
जनसभा:
(धीरे-धीरे murmuring)
सत्य है... ऐसा धर्म तो हमने कभी न सुना था।
धृतचंद्र:
(अग्रसर होकर)
यदि यह धर्म अग्नि है, तो मैं उसका रक्षक बनूँगा।
देवी के स्वप्न को पूर्ण करने के लिए
मैं अपने जीवन का प्रत्येक क्षण समर्पित करता हूँ।
(सत्यप्रणाह उसकी ओर देखती हैं — मौन संवाद, प्रकाश फैलता है।)
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🌕 अंक – तीन
दृश्य ३: वनदेवी का आशीर्वाद
(संध्या का दृश्य। दोनों साथ बैठे हैं। हल्की वर्षा की ध्वनि।)
वनदेवी का स्वर (पृष्ठभूमि से):
सत्यप्रणाह... धृतचंद्र...
तुमने धरती के तीन स्रोतों को पुनः जोड़ा है —
प्रकृति, नारी और धर्म।
अब से यह युग “प्रकृति धर्म” कहलाएगा।
सत्यप्रणाह:
(आँखें बंद कर प्रार्थना करती हैं)
माँ वनदेवि, हमारे कर्मों से ही यह धर्म जीवित रहे —
शब्दों से नहीं, जीवन से।
धृतचंद्र:
(मंद स्वर में)
और यदि अंधकार फिर लौटे —
तो मैं वह दीप बनूँगा जो तुम्हारे स्वप्न की लौ को
कभी बुझने नहीं देगा।
(दोनों हाथ जोड़ते हैं। आकाश से हल्की रोशनी धरती पर गिरती है।)
वनदेवी का स्वर:
> “सत्यप्रणाह का धर्म —
वह धर्म है जो हर प्राणी में करुणा खोजे,
हर नारी में सृजन देखे,
और हर वृक्ष में देवत्व।”
(धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में मंत्र गूँजता है:)
> “प्रकृति सर्वत्रा देवी,
नारी सर्वज्ञा माता,
करुणा सर्वोच्च धर्मः।”
(मंच पर प्रकाश धीरे-धीरे फैलता है — दोनों पात्र “दीपवत् मुद्रा” में स्थिर।)
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🌸 समापन संदेश
यह नाटक केवल दो व्यक्तित्वों की कथा नहीं —
यह नवयुग के धर्म का उद्घोष है।
जहाँ वीरता में करुणा हो, और करुणा में संकल्प।
जहाँ नारी ही धर्म की अधिष्ठात्री हो —
और प्रकृति स्वयं उसकी वेदशाला।
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