“धर्म का लक्ष्य: शक्ति बनो, शोषण नहीं”
🌺 “धर्म का लक्ष्य: स्वयं को धारण करने की कला” 🌺
धर्म क्या है?
बहुत लोगों के लिए धर्म मंदिर–मस्जिद–मठ–ग्रंथों का नाम है।
कुछ के लिए पूजा–पाठ और नियमों का पालन।
कुछ के लिए भगवान के नाम पर बहस, तर्क और अधिकार।
लेकिन सत्य इतना जटिल नहीं।
धर्म वही है — जो धारण करने योग्य है।
यानी वह विचार, वह मूल्य, वह व्यवहार
जो मनुष्य के जीवन को बेहतर, अर्थपूर्ण और संतुलित बनाए —
वही धर्म है।
धर्म कभी बाहर से थोपा नहीं जाता,
धर्म अंदर से जन्म लेता है।
इसलिए सबसे बड़ा सत्य यही है —
अपने जीवन का धर्म हर व्यक्ति स्वयं निर्मित करे।
क्योंकि हर इंसान का सफर अलग है,
चुनौतियाँ अलग, क्षमताएँ अलग, उद्देश्य अलग।
पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है —
“यदि धर्म व्यक्ति स्वयं बनाए, तो उसका लक्ष्य क्या होना चाहिए?”
उत्तर सरल है, पर गहरा —
धर्म का लक्ष्य है — स्वयं को इतना शक्तिशाली बनाना कि हम किसी के लिए पीड़ा का कारण न बनें, और जितना संभव हो सके, किसी के लिए शक्ति बनें।
धर्म का लक्ष्य पूजा नहीं —
परिवर्तन है।
धर्म का लक्ष्य बहस नहीं —
उत्थान है।
धर्म का लक्ष्य पहचान नहीं —
चरित्र है।
यदि धर्म मनुष्य को विभाजित करे —
वह व्यापार है।
यदि धर्म मनुष्य को डराए —
वह बंधन है।
यदि धर्म मनुष्य को श्रेष्ठ और दूसरों को नीचा दिखाए —
वह सत्ता है।
पर यदि धर्म मनुष्य को भीतर से मजबूत करे —
वह सच्चा धर्म है।
सच्चे धर्म के तीन मूल घटक होते हैं —
🌱 1. स्वयं का उत्थान
धर्म का पहला लक्ष्य है व्यक्ति को भीतर से श्रेष्ठ बनाना —
सोच में, व्यवहार में, अनुशासन में, सत्य में।
🌍 2. समाज का संरक्षण
धर्म केवल ‘मैं’ के लिए नहीं,
‘हम’ के लिए है।
दूसरे को सहारा देना, सुरक्षा देना, प्रेरित करना —
यही धर्म का सामाजिक स्वरूप है।
✨ 3. मानवता का विस्तार
धर्म कभी सीमित नहीं होता —
वह जाति, धर्म, वर्ग, देश, लिंग, परिस्थिति…
इन सबसे ऊपर होता है।
धर्म का अंतिम लक्ष्य है —
दुनिया को थोड़ा और कोमल, न्यायपूर्ण और सुरक्षित बनाना।
इसलिए —
धर्म का लक्ष्य मुक्ति नहीं, उद्देश्य है।
धर्म का लक्ष्य स्वर्ग नहीं, स्वाभिमान है।
धर्म का लक्ष्य पूजा नहीं, प्रकाश है।
धर्म का लक्ष्य है —
मानव को ऐसी स्थिति में पहुंचाना कि वह संकट में भी चरित्र न खोए,
और शक्ति मिलने पर भी विनम्रता न छोड़े।
जब कोई व्यक्ति अपने भीतर ऐसा धर्म बनाता है,
वह किसी ग्रंथ का अनुयायी नहीं रहता —
वह ग्रंथ बन जाता है।
फिर उसके कदमों से ही सत्य परिभाषित होता है,
उसके कार्यों से ही न्याय जन्म लेता है,
उसके जीवन से ही प्रेरणा फैलती है।
और यही —
धर्म का अंतिम लक्ष्य है।