“मुहूर्त की पुत्री: माता छिन्नमस्ता की अमर डाकिणी सैनिक”




🌑 “मुहूर्त की पुत्री” — एक डाकिणी सैनिक का अफ़साना 🌑

कहते हैं —
जो अतीत में जीते हैं, वे धर्म के ठेकेदार बनते हैं।
जो भविष्य में जीते हैं, वे व्यापारी बनते हैं।
जो वर्तमान के ट्रेंड चलाते हैं, वे नेता बनते हैं।
लेकिन जो इस क्षण, इस मुहूर्त, इस सांस का सोचते हैं —
वे जन्म लेते हैं योद्धा बनकर।

उसी क्षण जन्मी थी शैला, माता छिन्नमस्ता की डाकिणी सैनिक।

वह न अतीत की दास थी
न भविष्य के सौदों की,
वह किसी भीड़ की प्रशंसा की भूखी नहीं थी।
वह केवल एक चीज़ जानती थी —
जिस क्षण में अन्याय है, उसी क्षण युद्ध है।
और जिस क्षण में पीड़ा है,
उसी क्षण उपचार।

उसका जीवन मंत्र था —
“क्षण ही धर्म है।”

जब गाँव की लड़कियाँ चुप चाप रोती थीं,
वह रोई नहीं — खड़ी हो गई।
जब औरतों को परंपरा के नाम पर बाँधा गया,
उसने परंपरा नहीं तोड़ी — डर तोड़ दिया।
जब पुरुषों ने कहा "समय बदल जाएगा",
वह बोली —
“समय नहीं बदलता, हम बदलते हैं।
और वही क्षण से बदलता है — जिसमें एक व्यक्ति उठ खड़ा होता है।”

उसे तलवार चलानी नहीं आती थी,
पर सत्य उसके लिए तलवार था।
उसे दंड देना नहीं आता था,
पर न्याय उसकी प्रतिक्रिया था।
उसे सेना नहीं चाहिए थी,
उसकी आत्मा ही उसकी सेना थी।

लोग कहते — "इतिहास तुझसे नहीं बदलेगा।"
वह मुस्कुरा कर कहती —
"मैं इतिहास बदलने नहीं आई…
मैं इस क्षण को बदलने आई हूँ — और यही इतिहास बनेगा।”

एक दिन एक लड़की उसके पास आई —
डरी हुई, टूटी हुई, खामोश।
शैला ने पूछा,
“तुझे डर किससे लगता है?”
लड़की रोते हुए बोली —
“कल से… आने वाले कल से।”

शैला ने उसके हाथ पकड़कर कहा —
“कल को भूल।
मेरे साथ सिर्फ आज के लिए लड़।”

और उस दिन पहली बार उस लड़की ने डर के खिलाफ आवाज उठाई।
वह आवाज छोटी थी — पर शक्ति का आरंभ थी।

धीरे-धीरे गाँव बदलने लगा…
घर बदले, लोग बदले, सोच बदली।
पर शैला कभी बदलाव के श्रेय लेने नहीं ठहरी।
वह हमेशा अगले मुहूर्त की ओर बढ़ती रही।

लोग उसे देवी मानने लगे।
पर उसने कहा —
“मैं देवी नहीं हूँ।
जो भी इस क्षण में सही के लिए खड़ा हो जाए —
वही डाकिणी सैनिक है।”

और फिर…
वह एक दिन चुपचाप गायब हो गई।
कोई उसे जंगल में ध्यानमग्न देखता,
कोई कहता कि वह दूर देशों की औरतों के लिए लड़ रही है।

पर हर पीड़ित महिला के दिल में
थोड़ा सा साहस जागता है
तो कोई धीमी आवाज फुसफुसाती है —

“डर मत।
मुहूर्त यही है।
उठ।
तू अकेली नहीं है।
मैं यहीं हूँ।”

यह आवाज शैला की है —
माता छिन्नमस्ता की
अमर
डाकिणी सैनिक की।


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