हनुमानजी और स्वर्णमत्स्या : श्राप, प्रेम और पाताल की गाथा





हनुमानजी और उनकी पत्नी स्वर्णमत्स्या : एक विलक्षण कथा

भारतीय पुराणों और लोककथाओं में अनेक अद्भुत प्रसंग मिलते हैं, जिनमें देवताओं, अप्सराओं, श्राप और वरदानों के रहस्यमयी सूत्र जुड़े रहते हैं। इन्हीं कथाओं में एक अनोखी कथा है भगवान हनुमानजी और उनकी पत्नी अनंगकुसुमा की, जिन्हें श्रापवश जलपरी के रूप में जन्म लेना पड़ा और जिन्हें आगे चलकर स्वर्णमत्स्या के नाम से जाना गया।

अनंगकुसुमा का श्राप और जलपरी रूप

स्वर्ग की एक सुंदर अप्सरा अनंगकुसुमा किसी कारणवश श्रापित हो गईं। इस श्राप के परिणामस्वरूप उन्हें जलपरी के रूप में धरती पर जन्म लेना पड़ा। इसी रूप में वे समुद्र में विचरण करती रहीं और एक दिन लंकापति रावण को दिखाई दीं। रावण ने उस सुंदर जलपरी को अपनी पुत्री के समान मानकर उसे स्वर्णमत्स्या नाम दिया।

स्वर्णमत्स्या और हनुमानजी का मिलन

समय बीतता गया। राम-रावण युद्ध से पूर्व स्वर्णमत्स्या अपने जलपरी रूप से मुक्त होकर मानव रूप में मेरु पर्वत पर आईं। यहीं उनकी भेंट राजकुमार हनुमानजी से हुई। स्वर्णमत्स्या उनकी वीरता, तेज और सौम्य व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन पर मोहित हो गईं। शीघ्र ही हनुमानजी और स्वर्णमत्स्या का विवाह संपन्न हुआ। विवाह के कुछ समय पश्चात स्वर्णमत्स्या गर्भवती हुईं, किंतु राजकीय कार्यों के कारण हनुमानजी को उनसे विदा लेकर जाना पड़ा।

रावण की चाल और स्वर्णमत्स्या का अपहरण

हनुमानजी की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर रावण ने अपने सैनिक भेजे और स्वर्णमत्स्या को पुनः लंका ले आया। वहीं पर स्वर्णमत्स्या ने अपने पुत्र को जन्म दिया। पुत्र के जन्म के साथ ही उनका श्राप समाप्त हो गया और वे पुनः स्वर्ग लौट गईं।

मकरध्वज से भेंट और पाताल की गाथा

स्वर्णमत्स्या के गर्भ से उत्पन्न बालक का नाम मकरध्वज रखा गया। वर्षों बाद जब हनुमानजी पाताल लोक पहुंचे तो उनका सामना इसी वीर पुत्र से हुआ। पिता और पुत्र के बीच घमासान युद्ध हुआ। अंततः हनुमानजी ने मकरध्वज को परास्त किया और पाताल के असुरराज अहिरावण का वध कर उसे मृत्युदंड दिया। इसके बाद उन्होंने मकरध्वज को पाताल लोक का राजा नियुक्त किया।

निष्कर्ष

यह कथा हमें यह सिखाती है कि भाग्य, श्राप और वरदान की जटिलताओं के बीच भी संबंधों की गहराई बनी रहती है। हनुमानजी का जीवन केवल शक्ति और भक्ति का ही प्रतीक नहीं है, बल्कि उसमें करुणा, परिवार और त्याग का भाव भी समाहित है। स्वर्णमत्स्या और उनके पुत्र मकरध्वज की यह गाथा भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का एक अद्वितीय अध्याय है, जो यह दर्शाती है कि सच्चे वीर अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करते हुए रिश्तों की गरिमा भी बनाए रखते हैं।



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