"धरतीअब्बा बिरसा मुंडा: उलगुलान का शंखनाद"
धरतीअब्बा: बिरसा मुंडा की आधुनिक कविता
देखो आता वन से गूँजता उसका नाम,
बिरसा मुंडा, जिसने खुद उन्नत किया आदिवासी इंसान।
ज़मीन अपने हाथों से, जब लौटा ली खोई पहचान,
कब्ज़ापाल, ब्रिटिश सब, सहमे उनके साहस से महान।
गूंजा गाँव-गाँव “उलगुलान” का डंका,
“अबुआ राज सेतेर जाना,” यह उनका अग्रिम गान था।
न देवी, न मंदिर—धरती ही थी उनकी आराधना,
संस्कृति और स्वाभिमान, यही थी उनकी साधना।
बिरसा ने छोड़ा ईसाइ धर्म, चुना अपना आदिवासी मार्ग,
नया ‘बिरसाइत’ धर्म—जिसमें सम्मान मिले हर वर्ग।
छोड़नी परंपरा नहीं, बल्कि शक्तिशाली आचरण,
यही उनका सन्देश, जो आज भी पैदा करता जागरण।
बहता है उनका साहस, लोक गानों की धुन में,
बिरसा भगवन कहलाए, आदिवासी “धरतीअब्बा” उनकी पहचान में।
अग्निपर्यंत रहेगा उनके संघर्ष का प्रकाश,
क्योंकि सच्चा नेता अपने वचन को नहीं करता विश्राम।