"गंधर्व विवाह से दहेज प्रथा तक: प्रेम से व्यापार की ओर"







गंधर्व विवाह और दहेज प्रथा: एक सामाजिक दृष्टिकोण

भारतीय संस्कृति में विवाह को केवल दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो परिवारों और आत्माओं का पवित्र मिलन माना गया है। प्राचीन काल में विवाह की विभिन्न विधियाँ प्रचलित थीं, जिनमें गंधर्व विवाह एक महत्वपूर्ण और स्वीकृत परंपरा थी। इसमें प्रेमी-प्रेमिका बिना किसी जटिल रस्मों और सामाजिक पाबंदियों के, भगवान के साक्षी होकर एक-दूसरे को जीवनभर साथ निभाने का वचन देते थे। यह विशेष रूप से तब होता था, जब जाति, बिरादरी या परिवार की बाधाओं के कारण पारंपरिक विवाह संभव नहीं होता था। इस प्रकार, लिव-इन रिलेशनशिप जैसी आधुनिक अवधारणा उस समय भी एक सम्मानित रूप में मौजूद थी।

इसके विपरीत, आज समाज में फैली दहेज प्रथा न तो किसी प्राचीन हिंदू शास्त्र में उल्लिखित है, न वेदों में, न रामायण, महाभारत, गीता या गरुड़ पुराण में। दहेज अंग्रेज़ी औपनिवेशिक काल के प्रभाव और आर्थिक लालच से उपजा एक सामाजिक अभिशाप है। यह प्रथा न केवल स्त्रियों को आर्थिक बोझ के रूप में प्रस्तुत करती है, बल्कि पुरुषों के चरित्र और मानवीय मूल्यों पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है।

दहेज लेने वाला व्यक्ति अपने आप को वस्तु की तरह बेच देता है। एक सच्चा और स्वाभिमानी पुरुष प्रेम, सम्मान और वफ़ादारी से जीवनसाथी का दिल जीतता है, न कि पैसों और भौतिक वस्तुओं से।

अतः समय की मांग है कि हम प्राचीन मूल्यों से प्रेरणा लें—जहाँ विवाह प्रेम, समानता और सम्मान पर आधारित था—और आधुनिक समाज से दहेज जैसी बुराइयों को पूरी तरह समाप्त करें। तभी विवाह संस्था का असली पवित्र स्वरूप पुनः स्थापित हो सकेगा।



दहेज: परंपरा के नाम पर कलंक

प्राचीन भारत में विवाह के कई रूप प्रचलित थे, जिनमें गंधर्व विवाह भी शामिल था। यह एक ऐसा विवाह था जिसमें प्रेमी-प्रेमिका बिना किसी सामाजिक रस्म-रिवाज या भव्य आयोजन के, केवल भगवान को साक्षी मानकर एक-दूसरे से जीवन भर साथ निभाने का वचन देते थे। यह प्रथा खासकर तब अपनाई जाती थी जब माता-पिता अलग जाति या बिरादरी में विवाह की अनुमति नहीं देते थे। इसमें न कोई दिखावा था, न किसी तरह का आर्थिक लेन-देन।

इसके विपरीत, आज के समाज में “दहेज” जैसी अमानवीय और अपमानजनक प्रथा ने विवाह को एक पवित्र संबंध से व्यापार में बदल दिया है। गीता, रामायण, महाभारत, गरुड़ पुराण या वेद—किसी भी हिंदू शास्त्र में दहेज का उल्लेख नहीं मिलता। यह हमारे प्राचीन मूल्यों का हिस्सा कभी था ही नहीं, बल्कि यह औपनिवेशिक काल और विदेशी प्रभाव का परिणाम है।

दहेज वास्तव में एक तरह का सौदा है, जिसमें एक “नामर्द” खुद को एक वस्तु की तरह बेच देता है। जो सच्चा मर्द है, वह अपने जीवनसाथी को पैसों से नहीं, बल्कि वफादारी, इज्जत और सच्चे प्रेम से जीतता है।

दहेज केवल आर्थिक बोझ नहीं, बल्कि एक सामाजिक अपराध है, जो न केवल बेटियों की गरिमा को ठेस पहुँचाता है, बल्कि परिवारों को तोड़ने का भी कारण बनता है। इस प्रथा को खत्म करने के लिए हमें न केवल कानून का पालन करना होगा, बल्कि अपनी सोच भी बदलनी होगी। विवाह को फिर से वही पवित्र बंधन बनाना होगा, जैसा गंधर्व विवाह के समय था—जहाँ प्रेम, सम्मान और विश्वास ही सबसे बड़ी पूंजी थे।


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