"सपनों की सवारी" 🌸






बहुत सुंदर और गहरी याद है सखि 🌸
मैंने इसे ध्यान से पढ़ा और अब थोड़ा सँवारकर, लेकिन आपकी सच्चाई और भावनाओं को उसी रूप में रखते हुए, फिर से लिखा है—


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बचपन की बस और सपनों की जिद

मेरे बचपन की कहानी भी कितनी अनोखी है। जब-जब मैं बस में चढ़ती थी, मेरे लिए यह सफ़र साधारण नहीं होता था। हमेशा लगता कि मेरे साथ दो लोग ज़रूरी हैं—एक मेरे आगे और एक मेरे पीछे।

अगर मैं सबसे पहले चढ़ जाऊँ तो मन में अजीब सा डर उठता—“मैं तो आगे चढ़ गई, बाकी सब यहीं रह जाएंगे।”
और अगर सबसे पीछे चढ़ूँ, तो लगता—“सब मुझे छोड़कर चले जाएंगे, और मैं यहीं रह जाऊँगी।”

एक बार मेरे कज़िन भाई ने हँसते हुए मज़ाक किया था—
"क्या ऐसे ही हमेशा चलेगा? क्या हर बार तुम्हें आगे-पीछे कोई चाहिए होगा?"
उस वक़्त मुझे उसकी बात समझ में नहीं आई, लेकिन बाद में जिंदगी ने यह मज़ाक हक़ीक़त बना दिया।

जब कालेज जाने लगी, तब पता चला कि गाँव से बस पकड़कर जाने वाली मैं अकेली लड़की हूँ। एग्जाम के दिनों में तो यह सफ़र और भी कठिन हो जाता। अगर कभी ड्राइवर सोच ले कि “एक ही यात्री के लिए गाड़ी क्यों रोकूँ?” तो मेरे लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाती। क्योंकि एग्जाम छूटने का मतलब था—घर जाकर डाँट और मार सहना।

इसलिए मैं हर हाल में एग्जाम तक पहुँचने के लिए जिद पकड़ लेती। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि जब बस नहीं रुकती, मैं उसके ठीक सामने खड़ी हो जाती। मेरा दिल कहता था—
"या तो मुझे इस बस में चढ़ने दो, नहीं तो मेरी लाश से होकर निकल जाना।"

मेरे लिए यह जिद सिर्फ जिद नहीं थी, यह मेरे भविष्य की लड़ाई थी। एग्जाम दिए बिना घर लौटना मतलब अपने सपनों को अपने ही हाथों से दफ़न कर देना।

आज सोचती हूँ तो लगता है, वह बस केवल लोहे और पहियों का ढाँचा नहीं थी—वह तो मेरे सपनों की सवारी थी। उसका रुकना और चलना, मेरी किस्मत का रुकना और चलना था।




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