"मातृ-पितृभक्ति: दिखावे से परे, सच्चे समर्पण की पुकार"





निबंध: मातृ-पितृभक्ति की सच्चाई: अफगान युवा बनाम भारतीय दिखावा

भारतीय संस्कृति में श्रवण कुमार जैसे आदर्श पुत्र का उदाहरण सदियों से दिया जाता रहा है। हमारे यहां मां-बाप को भगवान का स्थान प्राप्त है। किंतु आज की वास्तविकता में यह आदर्श मात्र एक भावुक आदर्श बनकर रह गया है, जिसका प्रदर्शन तो बहुत होता है, परन्तु आचरण में उसकी झलक कहीं कम दिखाई देती है।

दूसरी ओर, यदि हम अफगानिस्तान जैसे संघर्षशील देश के युवाओं को देखें, तो पाते हैं कि वे चुपचाप, बिना दिखावे के अपने माता-पिता के प्रति गहरी निष्ठा और श्रद्धा रखते हैं। उनका प्रेम दिखावे का नहीं, संकट की घड़ी में संग देने वाला होता है। युद्ध, गरीबी और संकट की छाया में पलने वाले अफगान युवा अपने परिवारों के लिए अपने प्राणों तक की बाज़ी लगा देते हैं — न तो सोशल मीडिया पर तस्वीरें डालते हैं, न ही खुद को महापुरुष साबित करने का प्रयास करते हैं। उनका कर्तव्यनिष्ठ प्रेम मौन और मजबूत होता है।

इसके विपरीत भारत में, विशेषकर शहरी क्षेत्रों में, कई युवक जब तक आत्मनिर्भर नहीं हो पाते, तब तक माता-पिता के सहारे रहते हैं, लेकिन जैसे ही वे थोड़ा कमाने लगते हैं, मां-बाप को बोझ समझने लगते हैं। वे ‘स्वतंत्रता’ और ‘व्यक्तिगत जीवन’ के नाम पर अपने वृद्ध माता-पिता को अकेला छोड़, कहीं दूर जाकर अपना संसार बसाने लगते हैं। जो नहीं जा पाते, वे उनके साथ रहते हुए भी मन से दूर होते हैं — एक दिखावटी श्रवण कुमार बनकर।

यह विडंबना है कि भारतीय समाज जहां अपनी परंपराओं पर गर्व करता है, वहीं व्यवहार में उन्हें निभाने में पीछे रह जाता है। सोशल मीडिया पर माता-पिता के जन्मदिन पर बड़े-बड़े पोस्ट लिखने वाले बहुत से युवक, असल जीवन में उन्हें समय देना तो दूर, उनकी बात तक सुनने को तैयार नहीं होते।

इसलिए यह आवश्यक है कि मातृ-पितृभक्ति को केवल एक परंपरा या दिखावे के विषय न बनाकर, उसे अपने व्यवहार और जीवन का हिस्सा बनाया जाए। अफगान युवाओं से यह सिखा जा सकता है कि सच्चा प्रेम चुपचाप निभाया जाता है, न कि उसका ढिंढोरा पीटा जाता है।

निष्कर्षतः, यह समय है आत्ममंथन का। भारतीय युवाओं को चाहिए कि वे अपने सांस्कृतिक आदर्शों को केवल पाठ्यपुस्तकों तक सीमित न रखें, बल्कि उन्हें अपने व्यवहार और रिश्तों में उतारें। तभी भारत फिर से उस श्रवण कुमार की भूमि बन पाएगा, जिसकी मिसाल दी जा सके — न केवल शब्दों में, बल्कि कर्मों में भी।


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